ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 46 - योग और ध्यान के महत्व #BhagavadGita

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारी श्रीमद्भगवद्गीता की श्रृंखला में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 46 की, जहाँ श्रीकृष्ण योग का महत्व बताते हैं और इसे जीवन में कैसे अपनाना चाहिए, इसकी गहराई में ले जाते हैं। तो चलिए, शुरू करते हैं! 


पिछले एपिसोड में हमने चर्चा की थी अध्याय 6 श्लोक 45 की, जहाँ हमने जाना कि मन और बुद्धि का संतुलन कैसे हमारी सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है।


आज के श्लोक में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि योगी सबसे श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह मन और आत्मा की एकता को समझता है। इस श्लोक का जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाला अर्थ समझने के लिए अंत तक बने रहें।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 46"

"योगीकी महिमाका कथन और योगी बननेके लिये आज्ञा ।


(श्लोक-४६)


तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥


उच्चारण की विधि - तपस्विभ्यः, अधिकः, योगी, ज्ञानिभ्यः, अपि, मतः, अधिकः, कर्मिभ्यः, च, अधिकः, योगी, तस्मात्, योगी, भव, अर्जुन ॥ ४६ ॥


शब्दार्थ - योगी अर्थात् योगी, तपस्विभ्यः अर्थात् तपस्वियोंसे, अधिकः अर्थात् श्रेष्ठ है, ज्ञानिभ्यः अर्थात् शास्त्रज्ञानियोंसे, अपि अर्थात् भी, अधिकः अर्थात् श्रेष्ठ, मतः अर्थात् माना गया है, च अर्थात् और, कर्मिभ्यः अर्थात् सकाम कर्म करनेवालोंसे भी, योगी अर्थात् योगी, अधिकः अर्थात् श्रेष्ठ है, तस्मात् अर्थात् इससे, अर्जुन अर्थात् हे अर्जुन ! (तू), योगी अर्थात् योगी, भव अर्थात् हो।


अर्थ - योगी तपस्वियोंसे श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियोंसे भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करनेवालोंसे भी योगी श्रेष्ठ है; इससे हे अर्जुन ! तू योगी हो ॥ ४६ ॥"

"व्याख्या- 'तपस्विभ्योऽधिको योगी' - ऋद्धि-सिद्धि आदिको पानेके लिये जो भूख-प्यास, सरदी-गरमी आदिका कष्ट सहते हैं, वे तपस्वी हैं। इन सकाम तपस्वियोंसे पारमार्थिक रुचिवाला, ध्येयवाला योगी श्रेष्ठ है।


'ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः' - शास्त्रोंको जाननेवाले पढ़े-लिखे विद्वानोंको यहाँ 'ज्ञानी' समझना चाहिये। जो शास्त्रोंका विवेचन करते हैं, ज्ञानयोग क्या है? कर्मयोग क्या है ? भक्तियोग क्या है? लययोग क्या है? आदि- आदि बहुत-सी बातें जानते हैं और कहते भी हैं; परन्तु जिनका उद्देश्य सांसारिक भोग और ऐश्वर्य है, ऐसे सकाम शब्दज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ माना गया है।


'कर्मिभ्यश्चाधिको योगी' - इस लोकमें राज्य मिल जाय, धन-सम्पत्ति, सुख-आराम, भोग आदि मिल जाय और मरनेके बाद परलोकमें ऊँचे-ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति हो जाय और उन लोकोंका सुख मिल जाय ऐसा उद्देश्य रखकर जो कर्म करते हैं अर्थात् सकामभावसे यज्ञ, दान, तीर्थ आदि शास्त्रीय कर्मोंको करते हैं, उन कर्मियोंसे योगी श्रेष्ठ है।"

"जो संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो गया है; वही वास्तवमें योगी है। ऐसा योगी बड़े-बड़े तपस्वियों, शास्त्रज्ञ पण्डितों और कर्मकाण्डियोंसे भी ऊँचा है, श्रेष्ठ है। कारण कि तपस्वियों आदिका उद्देश्य संसार है तथा सकामभाव है और योगीका उद्देश्य परमात्मा है तथा निष्कामभाव है।


तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी - इन तीनोंकी क्रियाएँ अलग- अलग हैं अर्थात् तपस्वियोंमें सहिष्णुताकी, ज्ञानियोंमें शास्त्रीय ज्ञानकी अर्थात् बुद्धिके ज्ञानकी और कर्मियोंमें शास्त्रीय क्रियाकी प्रधानता है। इन तीनोंमें सकामभाव होनेसे ये तीनों योगी नहीं हैं, प्रत्युत भोगी हैं। अगर ये तीनों निष्कामभाववाले योगी होते, तो भगवान् इनके साथ योगी-की तुलना नहीं करते; इन तीनोंसे योगीको श्रेष्ठ नहीं बताते।


'तस्माद्योगी भवार्जुन' - अभीतक भगवान् ने जिसकी महिमा गायी है; उसके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं कि 'हे अर्जुन ! तू योगी हो जा, राग-द्वेषसे रहित हो जा अर्थात् सब काम करते हुए भी जलमें कमलके पत्तेके तरह निर्लिप्त रह।' यही बात भगवान् ने आगे आठवें अध्यायमें भी कही है- 'योगयुक्तो भवार्जुन' (८।२७)।"

"पाँचवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये एक निश्चित श्रेयकी बात कहिये। इसपर भगवान् ने सांख्ययोग, कर्मयोग, ध्यानयोगकी बातें बतायीं, पर इस श्लोकसे पहले कहीं भी अर्जुनको यह आज्ञा नहीं दी कि तुम ऐसे बन जाओ, इस मार्गमें लग जाओ। अब यहाँ भगवान् अर्जुनकी प्रार्थनाके उत्तरमें आज्ञा देते हैं कि 'तुम योगी हो जाओ'; क्योंकि यही तुम्हारे लिये एक निश्चित श्रेय है।


परिशिष्ट भाव - भोगीका विभाग अलग है और योगीका विभाग अलग है। भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। जिनमें सकामभाव होता है, वे भोगी होते हैं और जिनमें निष्कामभाव होता है, वे योगी होते हैं। इसलिये सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मीसे भी निष्कामभाववाला योगी श्रेष्ठ है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने योगीकी प्रशंसा करके अर्जुनको योगी होनेकी आज्ञा दी। परन्तु कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, भक्तियोगी आदिमेंसे कौन-सा योगी होना चाहिये- इसके लिये अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा नहीं दी। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें 'अर्जुन भक्तियोगी बने'- इस उद्देश्यसे भक्तियोगीकी विशेष महिमा कहते हैं।"

कल के एपिसोड में हम जानेंगे अध्याय 6 श्लोक 47 की, जो योगी के चरम स्थिति और उसके महत्व को दर्शाता है।  तो दोस्तों, आज के श्लोक से आपने क्या सीखा? कमेंट में लिखें और अपने अनुभव साझा करें। चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें। मिलते हैं अगले एपिसोड में। जय श्रीकृष्ण!

दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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