ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 47 - ध्यान की शक्ति #BhagavadGita
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"जय श्री कृष्ण! स्वागत है आपका 'गीता सार' में, जहाँ हम हर दिन श्रीमद्भगवद्गीता के एक श्लोक पर चर्चा करते हैं। आज का श्लोक है Chapter 6, Shlok 47, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ध्यान और ईश्वर के प्रति समर्पण का महत्व बता रहे हैं। आइए, इस श्लोक को समझते हैं।
पिछले वीडियो में, हमने Chapter 6, Shlok 46 में ज्ञान और ध्यान की शक्ति के बारे में चर्चा की। हमने यह समझा कि ध्यान करने वाला व्यक्ति कैसे सभी कर्मों से ऊपर होता है।
आज का श्लोक, Chapter 6, Shlok 47, यह बताता है कि ईश्वर में आस्था और समर्पण रखने वाला व्यक्ति सबसे श्रेष्ठ होता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि ध्यान की शक्ति से आत्मा और परमात्मा का मिलन संभव है। आइए, इस श्लोक को विस्तार से समझते हैं।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 47"
"सब योगियोंमेंसे अनन्य प्रेमसे श्रद्धापूर्वक भगवान्का भजन करनेवाले योगीकी प्रशंसा ।
(श्लोक-४७)
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
उच्चारण की विधि - योगिनाम्, अपि, सर्वेषाम्, मद्गतेन, अन्तरात्मना, श्रद्धावान्, भजते, यः, माम्, सः, मे, युक्ततमः, मतः ॥ ४७ ॥
शब्दार्थ - सर्वेषाम् अर्थात् सम्पूर्ण, योगिनाम् अर्थात् योगियोंमें, अपि अर्थात् भी, यः अर्थात् जो, श्रद्धावान् अर्थात् श्रद्धावान् योगी, मद्गतेन अर्थात् मुझमें लगे हुए, अन्तरात्मना अर्थात् अन्तरात्मासे, माम् अर्थात् मुझको (निरन्तर), भजते अर्थात् भजता है, सः अर्थात् वह योगी, मे अर्थात् मुझे, युक्ततमः अर्थात् परमश्रेष्ठ, मतः अर्थात् मान्य है।
अर्थ - सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है ॥ ४७ ॥"
"व्याख्या 'योगिनामपि सर्वेषाम्'- जिनमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है, जो कर्मयोग, सांख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि साधनोंके द्वारा अपने स्वरूपकी प्राप्ति- (अनुभव) में ही लगे हुए हैं, वे योगी सकाम तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे श्रेष्ठ हैं। परन्तु उन सम्पूर्ण योगियोंमें भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है।
'यः श्रद्धावान्' - जो मेरेपर श्रद्धा और विश्वास करता है अर्थात् जिसके भीतर मेरी ही सत्ता और महत्ता है, ऐसा वह श्रद्धावान् भक्त मेरेमें लगे हुए मनसे मेरा भजन करता है।
'मद्गतेनान्तरात्मना मां भजते' - मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं- इस प्रकार जब स्वयंका भगवान् में अपनापन हो जाता है, तब मन स्वतः ही भगवान् में लग जाता है, तल्लीन हो जाता है। जैसे विवाह होनेपर लड़कीका मन स्वाभाविक ही ससुरालमें लग जाता है, ऐसे ही भगवान् में अपनापन होनेपर भक्तका मन स्वाभाविक ही भगवान् में लग जाता है, मनको लगाना नहीं पड़ता। फिर खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते आदि सभी क्रियाओंमें मन भगवान् का ही चिन्तन करता है, भगवान् में ही लगा रहता है।
जो केवल भगवान् का ही हो जाता है, जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता, उसकी साधन-भजन, जप- कीर्तन, श्रवण-मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ; खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका-सम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं।"
"अनन्यभक्तके भजनका स्वरूप भगवान् ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें बताया है कि वह भक्त मेरी प्रसन्नताके लिये ही सभी कर्म करता है, सदा मेरे ही परायण रहता है, केवल मेरा ही भक्त है, संसारका भक्त नहीं है, संसारकी आसक्तिको सर्वथा छोड़ देता है और सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित हो जाता है।
'स मे युक्ततमो मतः' - संसारसे विमुख होकर अपना उद्धार करनेमें लगनेवाले जितने योगी (साधक) हो सकते हैं, वे सभी 'युक्त' हैं। जो सगुण-निराकारकी अर्थात् व्यापकरूपसे सबमें परिपूर्ण परमात्माकी शरण लेते हैं, वे सभी 'युक्ततर' हैं। परन्तु जो केवल मुझ सगुण भगवान् के ही शरण होते हैं, वे मेरी मान्यतामें 'युक्ततम' हैं।
वह भक्त युक्ततम तभी होगा, जब कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि सभी योग उसमें आ जायँगे। श्रद्धा- विश्वासपूर्वक भगवान् में तल्लीन हुए मनसे भजन करनेपर उसमें सभी योग आ जाते हैं। कारण कि भगवान् महायोगेश्वर हैं, सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर हैं, तो महायोगेश्वरके शरण होनेपर शरणागतका कौन-सा योग बाकी रहेगा ? वह तो सम्पूर्ण योगोंसे युक्त हो जाता है। इसलिये भगवान् उसको युक्ततम कहते हैं।
युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान् को नहीं छोड़ता, तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्तसमयमें वह पीड़ा, बेहोशी आदिके कारण भगवान् को याद न कर सके, तो भगवान् उसको याद करते हैं*; अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है ?"
"* भगवान् कहते हैं- ततस्तं प्रियमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभम् । अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम् ॥ 'काष्ठ और पाषाणके सदृश म्रियमाण उस भक्तका मैं स्वयं स्मरण करता हूँ और उसको परमगति प्रदान करता हूँ।'कफवातादिदोषेण मद्भक्तो न च मां स्मरेत् । तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः ॥
'कफ-वातादि दोषोंके कारण मेरा भक्त यदि मृत्युके समय मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैं स्वयं उसका स्मरण करता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ, तो मेरेसे बढ़कर कृतघ्न कोई नहीं हो सकता।' तात्पर्य है कि जो संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान् के ही परायण हो गया है, जिसको अपने बलका, उद्योगका, साधनका सहारा, विश्वास और अभिमान नहीं है, ऐसे भक्तको भगवान् योगभ्रष्ट नहीं होने देते; क्योंकि वह भगवान् पर ही निर्भर होता है। जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है तथा जिसको अपने पुरुषार्थका सहारा, विश्वास और अभिमान है, उसीके योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। कारण कि अन्तःकरणमें भोगोंका महत्त्व होनेपर परमात्माका ध्यान करते हुए भी मन संसारमें चला जाता है। इस प्रकार अगर प्राण छूटते समय मन संसारमें चला जाय, तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। अगर अपने बलका सहारा, विश्वास और अभिमान न हो, तो मन संसारमें जानेपर भी वह योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि ऐसी अवस्था आनेपर (मन संसारमें जानेपर) वह भगवान् को पुकारता है। अतः ऐसे भगवान् पर निर्भर भक्तका चिन्तन भगवान् स्वयं करते हैं, जिससे वह योगभ्रष्ट नहीं होता; प्रत्युत भगवान् को प्राप्त हो जाता है।"
"यहाँ भक्तियोगीको सर्वश्रेष्ठ बतानेसे यह सिद्ध होता है कि दूसरे जितने योगी हैं, उनकी पूर्णतामें कुछ-न-कुछ कमी रहती होगी ? संसारका सम्बन्ध विच्छेद होनेसे सभी योगी बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, निर्विकार हो जाते हैं और परम सुख, परम शान्ति, परम आनन्दका अनुभव करते हैं- इस दृष्टिसे तो किसीकी भी पूर्णतामें कोई कमी नहीं रहती। परन्तु जो अन्तरात्मासे भगवान् में लग जाता है, भगवान् के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगवत्प्रेम प्रकट हो जाता है। वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है। ऐसा प्रेम प्रकट होनेसे ही भगवान् ने उसको सर्वश्रेष्ठ माना है।
पाँचवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने पूछा कि सांख्ययोग और योग- इन दोनोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है? तो भगवान् ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार वहाँपर कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। परन्तु अर्जुनके लिये कौन-सा योग श्रेष्ठ है, यह बात नहीं बतायी। उसके बाद सांख्ययोग और कर्मयोगकी साधना कैसी चलती है-इसका विवेचन करके छठे अध्यायके आरम्भमें कर्मयोगकी विशेष महिमा कही। जो तत्त्व (समता) कर्मयोगसे प्राप्त होता है, वही तत्त्व ध्यानयोगसे भी प्राप्त होता है-इस बातको लेकर ध्यानयोगका वर्णन किया। ध्यानयोगमें मनकी चंचलता बाधक होती है-इस बातको लेकर अर्जुनने मनके विषयमें प्रश्न किया। इसका उत्तर भगवान् ने संक्षेपसे दे दिया। फिर अर्जुनने पूछा कि योगका साधन करनेवाला अगर अन्तसमयमें योगसे विचलितमना हो जाय तो उसकी क्या दशा होती है ? "
"इसके उत्तरमें भगवान् ने योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन किया और छियालीसवें श्लोकमें योगीकी विशेष महिमा कहकर अर्जुनको योगी बननेके लिये स्पष्टरूपसे आज्ञा दी। परन्तु मेरी मान्यतामें कौन-सा योग श्रेष्ठ है - यह बात भगवान् ने यहाँतक स्पष्टरूपसे नहीं कही। अब यहाँ अन्तिम श्लोकमें भगवान् अपनी मान्यताकी बात अपनी ही तरफसे (अर्जुनके पूछे बिना ही) कहते हैं कि मैं तो भक्तियोगीको श्रेष्ठ मानता हूँ- 'स मे युक्ततमो मतः ।' परन्तु ऐसा स्पष्टरूपसे कहनेपर भी अर्जुन भगवान् की बातको पकड़ नहीं पाये। इसलिये अर्जुन आगे बारहवें अध्यायके आरम्भमें पुनः प्रश्न करेंगे कि आपकी भक्ति करनेवाले और अविनाशी निराकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है ? तो उत्तरमें भगवान् अपने भक्तको ही श्रेष्ठ बतायेंगे, जैसा कि यहाँ बताया है।
१- यहाँ भगवान् ने 'स मे युक्ततमो मतः' कहा है और बारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें 'ते मे युक्ततमा मताः' कहा है। दोनों जगह भगवान् ने एक ही शब्द कहे हैं, केवल वचनोंमें अन्तर है अर्थात् यहाँ एकवचनसे कहा है और वहाँ बहुवचनसे।
विशेष बात
कर्मयोगी, ज्ञानयोगी आदि सभी युक्त हैं अर्थात् सभी संसारसे विमुख हैं और समता (चेतन-तत्त्व) के सम्मुख हैं। उनमें भी भक्तियोगी (भक्त) को सर्वश्रेष्ठ बतानेका तात्पर्य है कि यह जीव परमात्माका अंश है, पर संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर यह बंध गया है। जब यह संसार-शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धको छोड़ देता है, तब यह स्वाधीन और सुखी हो जाता है। "
"इस स्वाधीनताका भी एक भोग होता है। यद्यपि इस स्वाधीनतामें पदार्थों, व्यक्तियों, क्रियाओं, परिस्थितियों आदिकी कोई पराधीनता नहीं रहती, तथापि इस स्वाधीनताको लेकर जो सुख होता है अर्थात् मेरेमें दुःख नहीं है, संताप नहीं है लेशमात्र भी कोई इच्छा नहीं है- यह जो सुखका भोग होता है, यह स्वाधीनतामें भी परिच्छिन्नता (पराधीनता) है। इसमें संसारके साथ सूक्ष्म सम्बन्ध बना हुआ है। इसलिये इसको 'ब्रह्मभूत अवस्था' कहा गया है (गीता - अठारहवें अध्यायका चौवनवाँ श्लोक)।
जबतक सुखके अनुभवमें स्वतन्त्रता मालूम देती है, तबतक सूक्ष्म अहंकार रहता है। परन्तु इसी स्थितिमें (ब्रह्मभूत अवस्थामें) स्थित रहनेसे वह अहंकार भी मिट जाता है। कारण कि प्रकृति और उसके कार्यके साथ सम्बन्ध न रखनेसे प्रकृतिका अंश 'अहम्' अपने-आप शान्त हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगी, ज्ञानयोगी भी अन्तमें समय पाकर अहंकारसे रहित हो जाते हैं। परन्तु भक्तियोगी तो आरम्भसे ही भगवान् का हो जाता है। अतः उसका अहंकार आरम्भमें ही समाप्त हो जाता है! ऐसी बात गीतामें भी देखनेमें आती है कि जहाँ सिद्ध कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगीके लक्षणोंका वर्णन हुआ है, वहाँ कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें तो करुणा और कोमलता देखनेमें नहीं आती, पर भक्तोंके लक्षणोंमें देखनेमें आती है। इसलिये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें तो 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' (१२। १३) - ये पद आये हैं, पर सिद्ध कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें ऐसे पद नहीं आये हैं। "
"तात्पर्य है कि भक्त पहलेसे ही छोटा होकर चलता है, अतः उसमें नम्रता, कोमलता, भगवान् के विधानमें प्रसन्नता आदि विलक्षण बातें साधनावस्थामें ही आ जाती हैं और सिद्धावस्थामें वे बातें विशेषतासे आ जाती हैं। २-तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
(शिक्षाष्टक)
'अपनेको तृणसे भी नीचा समझकर, वृक्षसे भी सहनशील बनकर, दूसरोंका मान करते हुए और स्वयं मानरहित होकर सदा हरिका नाम- संकीर्तन करे।'
इसलिये भक्तमें सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता। इन्हीं कारणोंसे भगवान् ने भक्तको सर्वश्रेष्ठ कहा है।
शान्ति, स्वाधीनता आदिका रस चिन्मय होते हुए भी 'अखण्ड' है। परन्तु भक्तिरस चिन्मय होते हुए भी 'प्रतिक्षण वर्धमान' है अर्थात् वह नित्य नवीनरूपसे बढ़ता ही रहता है, कभी घटता नहीं, मिटता नहीं और पूरा होता नहीं। ऐसे रसकी, प्रेमानन्दकी भूख भगवान् को भी है। भगवान् की इस भूखकी पूर्ति भक्त ही करता है। इसलिये भगवान् भक्तको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। इसमें एक बात और समझनेकी है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग- इन दोनोंमें तो साधककी अपनी निष्ठा (स्थिति) होती है, पर भक्तकी अपनी कोई स्वतन्त्र निष्ठा नहीं होती। भक्त तो सर्वथा भगवान् के ही आश्रित रहता है, भगवान् पर ही निर्भर रहता है, भगवान् की प्रसन्नतामें ही प्रसन्न रहता है-'तत्सुखे सुखित्वम्।' उसको अपने उद्धारकी भी चिन्ता नहीं होती। हमारा क्या होगा ? इधर उसका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसे भगवन्निष्ठ भक्तका सारा भार, सारी देखभाल भगवान् पर ही आती है- 'योगक्षेमं वहाम्यहम्।'"
"परिशिष्ट भाव-मनुष्यकी स्थिति वहीं होती है, जहाँ उसके मन-बुद्धि होते हैं (गीता - बारहवें अध्यायका आठवाँ श्लोक)। यहाँ 'मद्गतेनान्तरात्मना' में भक्तका मन भगवान् में लगा है और 'श्रद्धावान्' में उसकी बुद्धि भगवान् में लगी है। अतः भगवान् में गाढ़ आत्मीयता होनेसे ऐसा भक्त भगवान् में ही स्थित है।
कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, हठयोगी, लययोगी, राजयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैं, उन सब योगियोंमें भगवान् का भक्त सर्वश्रेष्ठ है। अपने भक्तके विषयमें ऐसी बात भगवान् ने और जगह भी कही है; जैसे - 'ते मे युक्ततमा मताः' (१२।२), 'भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः' (१२।२०), 'स योगी परमो मतः' (६। ३२) ।
परमात्मप्राप्तिके सभी साधनोंमें भक्ति मुख्य है। इतना ही नहीं, सभी साधनोंका अन्त भक्तिमें ही होता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि तो साधन हैं, पर भक्ति साध्य है। भक्ति इतनी व्यापक है कि वह प्रत्येक साधनके आदिमें भी है और अन्तमें भी है। भक्ति प्रत्येक साधनके आरम्भमें पारमार्थिक आकर्षणके रूपमें रहती है; क्योंकि परमात्मामें आकर्षण हुए बिना कोई मनुष्य साधनमें लग ही नहीं सकता। साधनके अन्तमें भक्ति प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके रूपमें रहती है-'मद्भक्तिं लभते पराम्' (गीता १८। ५४)। इसलिये ब्रह्मसूत्रमें अन्य सब धर्मोंकी अपेक्षा भगवद्भक्ति-विषयक धर्मको श्रेष्ठ बताया गया है - 'अतस्त्विरज्यायो लिंगाच्च' (३।४। ३९)।
प्रस्तुत श्लोकसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और उनकी भक्ति अलौकिक है! उस भक्तिकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता है।"
"ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
इस प्रकार ॐ, तत्, सत् - इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्द्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'आत्मसंयमयोग' नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६॥
आत्मसंयम अर्थात् मनका संयमन करनेसे ध्यानयोगीको योग (समता) का अनुभव हो जाता है; अतः इस अध्यायका नाम 'आत्मसंयमयोग' रखा गया है।
छठे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच
(१) इस अध्यायमें 'अथ षष्ठोऽध्यायः' के तीन, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके दस, श्लोकोंके पाँच सौ तिहत्तर और पुष्पिकाके तेरह पद हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग पाँच सौ निन्यानबे है।
(२) 'अथ षष्ठोऽध्यायः' के छः, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके तैंतीस, श्लोकोंके एक हजार पाँच सौ चार और पुष्पिकाके सैंतालीस अक्षर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग एक हजार पाँच सौ नब्बे है। इस अध्यायके सभी श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं।
(३) इस अध्यायमें पाँच 'उवाच' हैं-तीन 'श्रीभगवानुवाच' और दो 'अर्जुन उवाच'।
छठे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द
इस अध्यायके सैंतालीस श्लोकोंमेंसे पहले और छब्बीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'भगण' प्रयुक्त होनेसे 'भ-विपुला'; दसवें, चौदहवें और पचीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा पंद्रहवें, सत्ताईसवें, छत्तीसवें और बयालीसवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'न-विपुला'; और ग्यारहवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'रगण' प्रयुक्त होनेसे 'र-विपुला' संज्ञावाले छन्द हैं। शेष सैंतीस श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं।"
"कल के एपिसोड में हम Chapter 7 का पहला श्लोक समझेंगे, जहाँ भगवान कृष्ण ज्ञान और भक्ति की यात्रा की शुरुआत की बात करेंगे।
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दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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