ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 2 - आत्मा और ज्ञान का मर्म #BhagavadGita
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों के माध्यम से जीवन के महत्वपूर्ण पाठ सीखते हैं।
आज के इस विशेष वीडियो में आपका स्वागत है। हम गीता के अध्याय 7, श्लोक 2 की गहराई में उतरेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण आत्मा और ज्ञान का अद्वितीय पाठ सिखाते हैं। "
पिछली बार हमने गीता के अध्याय 7, श्लोक 1 को समझा, जिसमें श्रीकृष्ण ने भक्तों के लिए भगवान तक पहुँचने के मार्ग को स्पष्ट किया।
आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें ज्ञान और विज्ञान के संयुक्त स्वरूप को समझाएंगे। यह श्लोक हमें सिखाता है कि इस ब्रह्मांड की गूढ़ सच्चाइयों को कैसे समझा जाए।
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 7 श्लोक 2"
"विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करनेके लिये भगवान्की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा।
(श्लोक-२)
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्-ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
उच्चारण की विधि - ज्ञानम्, ते, अहम्, सविज्ञानम्, इदम्, वक्ष्यामि, अशेषतः, यत्, ज्ञात्वा, न, इह, भूयः, अन्यत्, ज्ञातव्यम्, अवशिष्यते ॥ २ ॥
शब्दार्थ - अहम् अर्थात् मैं, ते अर्थात् तेरे लिये, इदम् अर्थात् इस, सविज्ञानम् अर्थात् विज्ञानसहित, ज्ञानम् अर्थात् तत्त्वज्ञानको, अशेषतः अर्थात् सम्पूर्णतया, वक्ष्यामि अर्थात् कहूँगा, यत् अर्थात् जिसको, ज्ञात्वा अर्थात् जानकर, इह अर्थात् संसारमें, भूयः अर्थात् फिर, अन्यत् अर्थात् और कुछ भी, ज्ञातव्यम् अर्थात् जाननेयोग्य, न अवशिष्यते अर्थात् शेष नहीं रह जाता।
अर्थ - मैं तेरे लिये इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञानको सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसारमें फिर और कुछ भी जाननेयोग्य शेष नहीं रह जाता ॥ २ ॥"
"व्याख्या-'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः '- भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन ! अब मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा, तुम्हें कहूँगा और मैं खुद कहूँगा तथा सम्पूर्णतासे कहूँगा।
१-मैं 'विज्ञानसहित ज्ञान' सम्पूर्णतासे कहूँगा- इसमें विज्ञान ज्ञानका विशेषण है। विशेषण विशेष्यकी विशेषता बतानेवाला होता है। इस दृष्टिसे विशेष्य व्यापक हुआ और विशेषण व्याप्य हुआ अर्थात् ज्ञान (विशेष्य) बड़ा हुआ और विज्ञान (विशेषण) छोटा हुआ। परन्तु विज्ञानने ज्ञानकी विशेषता बता दी - इस दृष्टिसे विज्ञान बड़ा अर्थात् श्रेष्ठ हुआ। यहाँ यह संसार भगवान् से ही उत्पन्न होता है और भगवान् में ही लीन होता है-ऐसा मानना ज्ञान है; और सब कुछ भगवान् ही हैं, भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं, भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं-ऐसा अनुभव हो जाना विज्ञान है। इसमें ज्ञान सामान्य हुआ और विज्ञान विशेष हुआ।
ऐसे तो हरेक आदमी हरेक गुरुसे मेरे स्वरूपके बारेमें सुनता है और उससे लाभ भी होता है; परन्तु तुम्हें मैं स्वयं कह रहा हूँ। स्वयं कौन ? जो समग्र परमात्मा है, वह मैं स्वयं ! मैं स्वयं मेरे स्वरूपका जैसा वर्णन कर सकता हूँ, वैसा दूसरे नहीं कर सकते; क्योंकि वे तो सुनकर और अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करके ही कहते हैं।
२-जैसे, कोई वर्णन करता है तो वर्णन करनेवालेका जो स्वयंका अनुभव है, वह पूरा बुद्धिमें नहीं आता; बुद्धिमें जितना आता है, उतना मनमें नहीं आता और जितना मनमें आता है, उतना कहनेमें नहीं आता। इस प्रकार जब उसका अपना अनुभव भी पूरा कहनेमें नहीं आता "
"अर्थात् वह अपने अनुभवको भी पूरा प्रकट नहीं कर सकता, तो फिर वह भगवान् की तरह कैसे कह सकता है ? उनकी बुद्धि समष्टि बुद्धिका एक छोटा-सा अंश है, वह कितना जान सकती है! वे तो पहले अनजान होकर फिर जानकार बनते हैं, पर मैं सदा अलुप्तज्ञान हूँ। मेरेमें अनजानपना न है, न कभी था, न होगा और न होना सम्भव ही है। इसलिये मैं तेरे लिये उस तत्त्वका वर्णन करूँगा, जिसको जाननेके बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा।
दसवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि आप अपनी सब-की-सब विभूतियोंको कहनेमें समर्थ हैं - 'वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः' तो उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है, इसलिये प्रधानतासे कहूँगा- 'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे' (१०। १९)। फिर अन्तमें कहते हैं कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है- 'नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप' (१०।४०) । यहाँ (७। २ में) भगवान् कहते हैं कि मैं विज्ञानसहित ज्ञानको सम्पूर्णतासे कहूँगा, शेष नहीं रखूँगा- 'अशेषतः ।' इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मैं तत्त्वसे कहूँगा। तत्त्वसे कहनेके बाद कहना, जानना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा।
दसवें अध्यायमें विभूति और योगकी बात आयी कि भगवान् की विभूतियोंका और योगका अन्त नहीं है। अभिप्राय है कि विभूतियोंका अर्थात् भगवान् की जो अलग-अलग शक्तियाँ हैं, उनका और भगवान् के योगका अर्थात् सामर्थ्य, ऐश्वर्यका अन्त नहीं आता। रामचरितमानसमें कहा है-
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ (उत्तर० ७३ ख) "
"तात्पर्य है कि सगुण भगवान् का जो प्रभाव है, ऐश्वर्य है, उसका अन्त नहीं आता। जब अन्त ही नहीं आता, तब उसको जानना मनुष्यकी बुद्धिके बाहरकी बात है। परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है, उसको मनुष्य सुगमतासे समझ सकता है। जैसे, सोनेके गहने कितने होते हैं? इसको मनुष्य नहीं जान सकता; क्योंकि गहनोंका अन्त नहीं है, परन्तु उन सब गहनोंमें तत्त्वसे एक सोना ही है, इसको तो मनुष्य जान ही सकता है। ऐसे ही परमात्माकी सम्पूर्ण विभूतियों और सामर्थ्यको कोई जान नहीं सकता; परन्तु उन सबमें तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं, इसको तो मनुष्य तत्त्वसे जान ही सकता है। परमात्माको तत्त्वसे जाननेपर उसकी समझ तत्त्वसे परिपूर्ण हो जाती है, बाकी नहीं रहती। जैसे, कोई कहे कि 'मैंने जल पी लिया' तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि अब संसारमें जल बाकी नहीं रहा। अतः जल पीनेसे जलका अन्त नहीं हुआ है, प्रत्युत हमारी प्यासका अन्त हुआ है। इसी तरहसे परमात्मतत्त्वको तत्त्वसे समझ लेनेपर परमात्मतत्त्वके ज्ञानका अन्त नहीं हुआ है, प्रत्युत हमारी अपनी जो समझ है, जिज्ञासा है, वह पूर्ण हुई है, उसका अन्त हुआ है, उसमें केवल परमात्मतत्त्व ही रह गया है।
दसवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि मेरे प्रकट होनेको देवता और महर्षि नहीं जानते और तीसरे श्लोकमें कहा है कि जो मुझे अज और अनादि जानता है, वह मनुष्योंमें असम्मूढ़ है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। तो जिसे देवता और महर्षि नहीं जानते, उसे मनुष्य जान ले - यह कैसे हो सकता है? भगवान् अज और अनादि हैं, ऐसा दृढ़तासे मानना ही जानना है। "
"मनुष्य भगवान् को अज और अनादि मान ही सकता है। परन्तु जैसे बालक अपनी माँके विवाहकी बरात नहीं देख सकता, ऐसे ही सब प्राणियोंके आदि तथा स्वयं अनादि भगवान् को देवता, ऋषि, महर्षि, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त आदि नहीं जान सकते। इसी प्रकार भगवान् के अवतार लेनेको, लीलाको, ऐश्वर्यको कोई जान नहीं सकता; क्योंकि वे अपार हैं, अगाध हैं, अनन्त हैं। परन्तु उनको तत्त्वसे तो जान ही सकते हैं। परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये 'ज्ञानयोग' में जानकारी (जानने) की प्रधानता रहती है और 'भक्तियोग' में मान्यता (मानने) की प्रधानता रहती है। जो वास्तविक मान्यता होती है, वह बड़ी दृढ़ होती है। उसको कोई इधर-उधर नहीं कर सकता अर्थात् माननेवाला जबतक अपनी मान्यताको न छोड़े, तबतक उसकी मान्यताको कोई छुड़ा नहीं सकता। जैसे, मनुष्यने संसार और संसारके पदार्थोंको अपने लिये उपयोगी मान रखा है तो इस मान्यताको स्वयं छोड़े बिना दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। परन्तु स्वयं इस बातको जान ले कि ये सब पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तो इस मान्यताको मनुष्य छोड़ सकता है; क्योंकि यह मान्यता असत्य है, झूठी है। जब असत्य मान्यताको भी दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता, तब जो वास्तविक परमात्मा सबके मूलमें है, उसको कोई मान ले तो यह मान्यता कैसे छूट सकती है ? क्योंकि यह मान्यता सत्य है। यह यथार्थ मान्यता ज्ञानसे कम नहीं होती, प्रत्युत ज्ञानके समान ही दृढ़ होती है।
भक्तिमार्गमें मानना मुख्य होता है। जैसे, दसवें अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा कि 'हे महाबाहो अर्जुन ! "
"मैं तेरे हितके लिये परम (सर्वश्रेष्ठ) वचन कहता हूँ, तुम सुनो अर्थात् तुम इस वचनको मान लो।' वहाँ भक्तिका प्रकरण है; अतः वहाँ माननेकी बात कहते हैं। ज्ञानमार्गमें जानना मुख्य होता है। जैसे, चौदहवें अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान् ने कहा कि 'मैं फिर ज्ञानोंमें उत्तम और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान कहता हूँ, जिसको जाननेसे सब-के-सब मुनि परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं।' वहाँ ज्ञानका प्रकरण है; अतः वहाँ जाननेकी बात कहते हैं। भक्तिमार्गमें मनुष्य मान करके जान लेता है और ज्ञानमार्गमें जान करके मान लेता है। अतः पूर्ण होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है।
ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बात
संसार भगवान् से ही पैदा होता है और उनमें ही लीन होता है, इसलिये भगवान् इस संसारके महाकारण हैं-ऐसा मानना 'ज्ञान' है। भगवान् के सिवाय और कोई चीज है ही नहीं, सब कुछ भगवान् ही हैं, स्वयं भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं- ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है। अपरा और परा प्रकृति मेरी है; इनके संयोगसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और मैं इस सम्पूर्ण जगत् का महाकारण हूँ (चौथेसे छठे श्लोकतक) - ऐसा कहकर भगवान् ने 'ज्ञान' बताया। मेरे सिवाय अन्य कोई है ही नहीं, सूतके धागेमें उसी सूतकी बनी हुई मणियोंकी तरह सब कुछ मेरेमें ही ओतप्रोत है (सातवाँ श्लोक) - ऐसा कहकर भगवान् ने 'विज्ञान' बताया।
जलमें रस, चन्द्र-सूर्यमें प्रभा मैं हूँ इत्यादि; सम्पूर्ण भूतोंका सनातन बीज मैं हूँ; सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (आठवेंसे बारहवें श्लोकतक) -ऐसा कहकर 'ज्ञान' बताया। "
"ये मेरेमें और मैं इनमें नहीं हूँ, अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ; क्योंकि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है (बारहवाँ श्लोक) - ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।
जो मेरे सिवाय गुणोंकी अलग सत्ता मान लेता है, वह मोहित हो जाता है। परन्तु जो गुणोंसे मोहित न होकर अर्थात् ये गुण भगवान् से ही होते हैं और भगवान् में ही लीन होते हैं-ऐसा मानकर मेरे शरण होता है, वह गुणमयी मायाको तर जाता है। ऐसे मेरे शरण होनेवाले चार प्रकारके भक्त होते हैं- अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)। ये सभी उदार हैं; पर ज्ञानी अर्थात् प्रेमी मेरेको अत्यन्त प्रिय है और मेरी आत्मा ही है (तेरहवेंसे अठारहवें श्लोकतक) - ऐसा कहकर 'ज्ञान' बताया। जिसको 'सब कुछ वासुदेव ही है' ऐसा अनुभव हो जाता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है (उन्नीसवाँ श्लोक) -ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।
मेरेको न मानकर जो कामनाओंके कारण देवताओंके शरण हो जाते हैं, उनको अन्तवाला फल (जन्म-मरण) मिलता है और जो मेरे शरण हो जाते हैं, उनको मैं मिल जाता हूँ। जो मुझे अज-अविनाशी नहीं जानते, उनके सामने मैं प्रकट नहीं होता। मैं भूत, भविष्य और वर्तमान - तीनों कालोंको और उनमें रहनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंको जानता हूँ, पर मेरेको कोई नहीं जानता। जो द्वन्द्वमोहसे मोहित हो जाते हैं, वे बार-बार जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं। जो एक निश्चय करके मेरे भजनमें लग जाते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं "
"तथा वे निर्द्वन्द्व हो जाते हैं (बीसवेंसे अट्ठाईसवें श्लोकतक) - ऐसा कहकर 'ज्ञान' बताया। जो मेरा आश्रय लेते हैं, वे ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञको जान जाते हैं अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा उनको अनुभव हो जाता है (७।२९-३०) - ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।
' यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' -
विज्ञानसहित ज्ञानको जाननेके बाद जानना बाकी नहीं रहता। तात्पर्य है कि मेरे सिवाय संसारका मूल दूसरा कोई नहीं है, केवल मैं ही हूँ- 'मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनंजय' (गीता ७।७) और तत्त्वसे सब कुछ वासुदेव ही है- 'वासुदेवः सर्वम्' (७। १९) और कोई है ही नहीं - ऐसा जान लेगा तो जानना बाकी कैसे रहेगा ? क्योंकि इसके सिवाय दूसरा कुछ जाननेयोग्य है ही नहीं। यदि एक परमात्माको न जानकर संसारकी बहुत-सी विद्याओंको जान भी लिया तो वास्तवमें कुछ नहीं जाना है, कोरा परिश्रम ही किया है।
'जानना कुछ बाकी नहीं रहता'- इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियोंसे, मनसे, बुद्धिसे जो परमात्माको जानता है, वह वास्तवमें पूर्ण जानना नहीं है। कारण कि ये इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्राकृत हैं, इसलिये ये प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको नहीं जान सकते। स्वयं जब परमात्माके शरण हो जाता है, तब स्वयं ही परमात्माको जानता है। इसलिये परमात्माको स्वयंसे ही जाना जा सकता है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं।
परिशिष्ट भाव - परा तथा अपरा प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है- यह 'ज्ञान' है और परा-अपरा सब कुछ भगवान् ही हैं- यह 'विज्ञान' है। "
"अतः अहम् सहित सब कुछ भगवान् ही हैं- यही विज्ञानसहित ज्ञान है।
'ज्ञातव्यम्' - जिसको अवश्य जानना चाहिये और जो जाना जा सकता है, उसको 'ज्ञातव्य' कहते हैं।
विज्ञानसहित ज्ञानको अर्थात् भगवान् के समग्ररूपको जाननेके बाद फिर जाननेयोग्य कुछ भी शेष नहीं रहता अर्थात् जो यथार्थ तत्त्व जानना चाहता है, उसके लिये जानना कुछ भी बाकी नहीं रहता। कारण कि जब एक भगवान् के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ है ही नहीं (इसी अध्यायका सातवाँ श्लोक), तो फिर जाननेयोग्य क्या बाकी रहेगा ?
यहाँ कोई कह सकता है कि 'विज्ञानसहित ज्ञान' कहनेसे ज्ञानकी मुख्यता और विज्ञानकी गौणता हुई ? परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। केवल 'ज्ञान' से मुक्ति तो हो जाती है, पर प्रेमका अनन्त आनन्द तभी मिलता है, जब उसके साथ विज्ञान भी हो। 'ज्ञान' धनकी तरह है और 'विज्ञान' आकर्षण है। जैसे धनके आकर्षणमें जो सुख है, वह धनमें नहीं है, ऐसे ही 'विज्ञान' (भक्ति) में जो आनन्द है, वह 'ज्ञान' में नहीं है। 'ज्ञान' में तो अखण्डरस है, पर 'विज्ञान' में प्रतिक्षण वर्धमान रस है। इसलिये 'विज्ञानसहित ज्ञान' कहनेमें भगवान् का लक्ष्य मुख्यरूपसे 'विज्ञान' की तरफ ही है और उसीको भगवान् श्रेष्ठ बताना चाहते हैं; क्योंकि 'विज्ञान' समग्रताका वाचक है।
सम्बन्ध-भगवान् ने दूसरे श्लोकमें यह बताया कि मैं विज्ञानसहित ज्ञानको सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिससे कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। जब जानना बाकी रहता ही नहीं, तो फिर सब मनुष्य उस तत्त्वको क्यों नहीं जान लेते ? इसके उत्तरमें आगेका श्लोक कहते हैं।"
"कल के वीडियो में हम गीता के अध्याय 7, श्लोक 3 को विस्तार से समझेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण मानव जीवन की दुर्लभता और ज्ञान प्राप्ति की कठिनाई पर प्रकाश डालेंगे।
दोस्तों, अगर आपको यह वीडियो पसंद आया हो, तो इसे लाइक और शेयर करना न भूलें। चैनल को सब्सक्राइब करें और हमें कमेंट में बताएं कि आपने आज के वीडियो से क्या सीखा।"
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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