कर्मबन्धन से मुक्ति का रहस्य | श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 28 | Geeta ka Saar | Moksha via Karma
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 28 - कैसे हर कर्म का फल पवित्र हो सकता है?
गीता का ज्ञान एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन के हर पहलू को आलोकित करता है। कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह ज्ञान दिया था, और उस दिव्य संवाद को सुनने का सौभाग्य केवल कुछ ही आत्माओं को प्राप्त हुआ — 👉 अर्जुन, 👉 ध्वजा पर विराजमान हनुमान जी, 👉 दिव्य दृष्टि से युक्त संजय, और 👉 हस्तिनापुर में बैठे धृतराष्ट्र।
यह आश्चर्य की बात है कि एक ही ज्ञान को सुनकर भी सबकी समझ अलग-अलग थी —
✅ अर्जुन ने इसे अपने कर्तव्य को समझने और निभाने की प्रेरणा के रूप में लिया,
❌ जबकि धृतराष्ट्र मोहवश उस दिव्य ज्ञान को समझ ही नहीं पाए।
आज अगर हम इस श्लोक को सुन पा रहे हैं, तो यह एक दुर्लभ सौभाग्य है। तो चलिए मिलकर आज के श्लोक का गूढ़ अर्थ समझते हैं — और जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण हमें पूजा, यज्ञ और उसके फल के बारे में क्या गहराई से बताते हैं।
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पिछले श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था — "तुम जो भी करते हो, खाते हो, दान देते हो या तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करो।" 👉 इससे हम समझते हैं कि जब कर्म ईश्वर को समर्पित होता है, तो उसका फल शुद्ध और पावन बनता है।
📖 आज का श्लोक परिचय (अध्याय 9, श्लोक 28):
🕉️ श्लोक: "शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥"
🪷 भावार्थ: इस प्रकार तुम शुभ-अशुभ फल रूप कर्म बंधनों से मुक्त हो जाओगे। सन्यास योग से युक्त होकर मुक्त आत्मा बनकर तुम मुझे प्राप्त करोगे।
🔍 अर्थ विस्तार: जब हम अपने हर कर्म को भगवान को समर्पित करते हैं, तो हम शुभ-अशुभ, लाभ-हानि, सफलता-असफलता के जाल में नहीं फँसते। 👉 यह श्लोक आत्मशुद्धि और मोक्ष की ओर बढ़ने का मार्ग है।
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
(श्लोक-२८)
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
उच्चारण की विधि - शुभाशुभफलैः, एवम्, मोक्ष्यसे, कर्मबन्धनैः, सन्न्यासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तः, माम्, उपैष्यसि ॥ २८ ॥
शब्दार्थ - एवम् अर्थात् इस प्रकार, सन्न्यासयोगयुक्तात्मा अर्थात् जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्के अर्पण होते हैं ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला (तू), शुभाशुभफलैः अर्थात् शुभाशुभ फलरूप, कर्मबन्धनैः अर्थात् कर्मबन्धनसे, मोक्ष्यसे अर्थात् मुक्त हो जायगा (और उनसे), विमुक्तः अर्थात् मुक्त होकर, माम् अर्थात् मुझको ही, उपैष्यसि अर्थात् प्राप्त होगा।
अर्थ - इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्के अर्पण होते हैं-ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा॥ २८॥
व्याख्या 'शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः' - पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करनेसे अर्थात् तेरे स्वयंके मेरे अर्पित हो जानेसे अनन्त जन्मोंके जो शुभ-अशुभ कर्मोंके फल हैं, उन सबसे तू मुक्त हो जायगा। वे कर्मफल तेरेको जन्म-मरण देनेवाले नहीं होंगे।
यहाँ शुभ और अशुभ कर्मोंसे अनन्त जन्मोंके किये हुए संचित शुभ-अशुभ कर्म लेने चाहिये। कारण कि भक्त वर्तमानमें भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान् को अर्पण करता है। भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म शुभ ही होते हैं, अशुभ होते ही नहीं। हाँ, अगर किसी रीतिसे, किसी परिस्थितिके कारण, किसी पूर्वाभ्यासके प्रवाहके कारण भक्तके द्वारा कदाचित् किंचिन्मात्र भी कोई आनुषंगिक अशुभकर्म बन जाय, तो उसके हृदयमें विराजमान भगवान् उस अशुभकर्मको नष्ट कर देते हैं।
१- विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥
(श्रीमद्भा० ११।५।४२)
जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी बाह्य होते हैं अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही होते हैं। इसलिये उन शुभ और अशुभकर्मोंका अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें जो फल आता है, वह भी बाह्य ही होता है। मनुष्य भूलसे उन परिस्थितियोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता रहता है। यह सुखी-दुःखी होना ही कर्मबन्धन है और इसीसे वह जन्मता-मरता है। परन्तु भक्तकी दृष्टि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंपर न रहकर भगवान् की कृपापर रहती है अर्थात् भक्त उनको भगवान् का विधान ही मानता है, कर्मोंका फल मानता ही नहीं। इसलिये वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
'सन्न्यासयोगयुक्तात्मा' - सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् के अर्पण करनेका नाम 'संन्यासयोग' है। इस संन्यासयोग अर्थात् समर्पणयोगसे युक्त होनेवालेको यहाँ 'सन्न्यासयोगयुक्तात्मा' कहा गया है। ऐसे तो गीतामें बहुत जगह 'संन्यास' शब्द सांख्ययोगका वाचक आता है, पर इसका प्रयोग भक्तिमें भी होता है; जैसे- 'मयि सन्न्यस्य' (१८।५७)।
जैसे सांख्ययोगी सम्पूर्ण कर्मोंको मनसे नवद्वारवाले शरीरमें रखकर स्वयं सुखपूर्वक अपने स्वरूपमें स्थित रहता है (गीता-पाँचवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक), ऐसे ही भक्त कर्मोंके साथ अपने माने हुए सम्बन्धको भगवान् में रख देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कोई सज्जन अपनी धरोहरको कहीं रख देता है, ऐसे ही भक्त अपनेसहित अनन्त जन्मोंके संचित कर्मोंको, उनके फलोंको और उनके सम्बन्धको भगवान् में रख देता है। इसलिये इसको 'संन्यासयोग' कहा गया है।
'विमुक्तो मामुपैष्यसि' - पूर्वश्लोकमें 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' कहकर अर्पण करनेकी आज्ञा दी। यहाँ कहते हैं कि 'इस प्रकार अर्पण करनेसे तू शुभ-अशुभकर्मफलोंसे मुक्त हो जायगा। शुभ-अशुभ कर्मफलोंसे मुक्त होनेपर तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।' तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण कर्मफलोंसे मुक्त होना तो प्रेम-प्राप्तिका साधन है और भगवान् की प्राप्ति होना प्रेमकी प्राप्ति है।
शुभ अथवा अशुभ किसी भी कर्मको किया जाय, उस कर्मका आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही उन कर्मोंके फलस्वरूपमें जो परिस्थिति आती है, उसका भी संयोग और वियोग होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब कर्म और उनके फल निरन्तर नहीं रहते, तो फिर उनके साथ सम्बन्ध निरन्तर कैसे रह सकता है? परन्तु जब कर्ता (कर्म करनेवाला) कर्मोंके साथ अपनापन कर लेता है, तब उसका फलके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। यद्यपि कर्म और फलके साथ सम्बन्ध कभी रह नहीं सकता, तथापि कर्ता उस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है। कर्ता स्वयं (स्वरूपसे) नित्य है, इसलिये उस सम्बन्धको अपनेमें स्वीकार करनेसे वह सम्बन्ध भी नित्य प्रतीत होने लगता है।
कर्ता शुभकर्मोंका फल चाहता है, जो कि अनुकूल परिस्थितिके रूपमें सामने आता है। उस परिस्थितिमें यह सुख मानता है। जबतक इस सुखकी चाहना रहती है, तबतक वह दुःखसे बच नहीं सकता। कारण कि सुखके आदिमें और अन्तमें दुःख ही रहता है तथा सुखसे भी प्रतिक्षण स्वाभाविक वियोग होता रहता है। जिसके वियोगको यह प्राणी नहीं चाहता, उसका वियोग तो हो ही जाता है, यह नियम है। तात्पर्य यह हुआ कि सुखकी इच्छाको यह नहीं छोड़ता और दुःख इसको नहीं छोड़ता।
शरीरके साथ भूलसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। यह परमात्माके साथ अभिन्न तो पहलेसे ही था। केवल अपने लिये कर्म करनेसे इस अभिन्नताका अनुभव नहीं होता था। अब अपनेसहित कर्मोंको भगवान् के अर्पण करनेसे उसकी अपने लिये कर्म करनेकी मान्यता मिट जाती है, तो उसको स्वाभाविक प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। इसीको भगवान् ने यहाँ 'विमुक्तो मामुपैष्यसि' कहा है।
जब यह जीव अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है तो फिर उसके सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, वह सब दया और कृपाके रूपमें परिणत हो जाती है। तात्पर्य है कि जब उसके सामने अनुकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान् की 'दया' को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान् की 'कृपा' को मानता है। दया और कृपामें भेद यह है कि कभी भगवान् प्यार, स्नेह करके जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करते हैं- यह 'दया' है और कभी शासन करके, ताड़ना करके उसके पापोंका नाश करते हैं- यह 'कृपा' है। इस प्रकार दया और कृपा करके भगवान् भक्तको सबल, सहिष्णु बनाते हैं। परन्तु भक्त तो दोनोंमें ही प्रसन्न रहता है। कारण कि उसकी दृष्टि अनुकूलता-प्रतिकूलताकी तरफ न रहकर केवल भगवान् की तरफ ही रहती है।
अतः उसकी दृष्टिमें भगवान् की दया और कृपा दो रूपसे नहीं होती, प्रत्युत एक ही रूपसे होती है। जैसा कि कहा है-
लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके । तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः ।।
'जिस प्रकार बालकका पालन करने और ताड़ना करने - दोनोंमें माँकी कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती।'
परिशिष्ट भाव - भगवान् ने 'यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्' (९। २५) से जो बात कहनी आरम्भ की थी, उसीका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको अपनेसहित मेरे अर्पण करनेसे तू कर्मबन्धनसे तथा शुभ-अशुभ दोनों कर्मोंके फलोंसे मुक्त होकर मेरेको ही प्राप्त हो जायगा।
'कर्म' भी शुभ-अशुभ होते हैं और 'फल' भी शुभ-अशुभ होता है। दूसरोंके हितके लिये करना 'शुभकर्म' है और अपने लिये करना 'अशुभकर्म' है। अनुकूल परिस्थिति 'शुभ फल' है और प्रतिकूल परिस्थिति 'अशुभफल' है। भगवान् का भक्त शुभकर्मोंको भगवान् के अर्पण कर देता है, अशुभकर्म करता ही नहीं और शुभ-अशुभ फलसे अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दुःखी नहीं होता।
उसके अनन्त जन्मोंके संचित शुभाशुभ-कर्म भस्म हो जाते हैं; जैसे- जलता हुआ घासका टुकड़ा फेंकनेसे सब घास जल जाता है !
भगवान् के अर्पण करनेसे संसारका सम्बन्ध (गुणसंग) नहीं रहता, केवल भगवान् का सम्बन्ध रह जाता है, जो कि स्वतः पहलेसे ही है- 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' (गीता १५। ७) । जो अपना नहीं है, उसको अपना माननेसे सिवाय बन्धनके कुछ नहीं होता। अपना माननेसे वस्तु तो रहती नहीं, केवल बन्धन रह जाता है। भक्तका किसी भी वस्तु, व्यक्ति और क्रियामें अपनापन न रहनेसे वह 'विमुक्त' हो जाता है।
यहाँ समर्पणयोगको 'संन्यासयोग' नामसे कहा गया है।
'मामुपैष्यसि' पदका तात्पर्य है कि भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है, उसकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती-'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' (गीता ७। १८)। इसीको प्रेमाद्वैत कहा गया है।
सम्बन्ध-अब एक शंका होती है कि जो भगवान् के समर्पित होते हैं, उनको तो भगवान् मुक्त कर देते हैं और जो भगवान् के समर्पित नहीं होते, उनको भगवान् मुक्त नहीं करते- इसमें तो भगवान् की दयालुता और समता नहीं हुई, प्रत्युत विषम-दृष्टि और पक्षपात हुआ ? इसपर कहते हैं-"
❓ कल के प्रश्न का उत्तर (Chapter 9, Shlok 27):
प्रश्न: भगवान के अनुसार तपस्या, दान, भोजन आदि किसे अर्पित करना चाहिए? उत्तर: C. भगवान को
🔎 व्याख्या: भगवान चाहते हैं कि हम हर कर्म को उनके चरणों में अर्पित करें, ताकि हम पापों से मुक्त हो सकें और हमारा मन शुद्ध हो जाए।
❓ आज का प्रश्न (उत्तर कल मिलेगा):
प्रश्न: जब हम अपने सारे कर्म भगवान को अर्पित करते हैं, तो हमें क्या लाभ होता है? A. धन की प्राप्ति B. मोक्ष की प्राप्ति C. प्रसिद्धि D. कर्मों का फल नहीं मिलता
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💡 आज की समस्या और समाधान:
समस्या: "मैंने अच्छे कर्म किए हैं, फिर भी मुझे दुख क्यों मिलता है?"
समाधान: भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट करते हैं कि कर्म का फल तुरंत या प्रत्यक्ष नहीं होता। अगर आप निष्काम भाव से कर्म करते हैं और उसे ईश्वर को अर्पित कर देते हैं, तो आप कर्मफल के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। 👉 इसका अर्थ यह नहीं कि दुख नहीं आएंगे, बल्कि यह कि वे आपके आत्मा को प्रभावित नहीं करेंगे।
कल के श्लोक में भगवान बताएंगे – "मैं सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखता हूँ" – यानि ईश्वर की दृष्टि में कोई बड़ा या छोटा नहीं है। 👉 यह श्लोक ईश्वर की निष्पक्षता और करुणा को उजागर करता है।
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