✨ एक जैसा दृष्टिकोण, सब में ईश्वर का रूप | Chapter 9 Shlok 29 | Jagat ka Saar ✨
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
📖 आज का विषय: ✨ एक जैसा दृष्टिकोण, सब में ईश्वर का रूप | Chapter 9 Shlok 29 | Jagat ka Saar ✨
🪔 गीता का दिव्य ज्ञान गीता का ज्ञान एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन के हर कोने को आलोकित करता है। 👉🏻 हर श्लोक हमें आत्मा, कर्त्तव्य और भक्ति की गहराई सिखाता है। आज का श्लोक भी हमारी सोच बदल सकता है…
🔮कल हमने देखा था कि भगवान कैसे भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें ज्ञान की ओर ले जाते हैं। आज जानेंगे — भगवान कैसे सबके साथ समान व्यवहार करते हैं… लेकिन भक्ति करने वालों से विशेष प्रेम क्यों करते हैं?
🎙️ कभी सोचा है कि भगवान सबके साथ समान क्यों हैं — फिर भी भक्तों को विशेष प्रेम क्यों मिलता है? अध्याय 9, श्लोक 29 इसका रहस्य खोलता है!
👉🏻 "मैं सबके प्रति समान हूँ..." — श्रीकृष्ण
🌺 गीता का महिमा
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"अपने समत्वभावका वर्णन एवं भजनेवालोंकी महिमा।
(श्लोक-२९)
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
उच्चारण की विधि - समः, अहम्, सर्वभूतेषु, न, मे, द्वेष्यः, अस्ति, न, प्रियः, ये, भजन्ति, तु, माम्, भक्त्या, मयि, ते, तेषु, च, अपि, अहम् ॥ २९ ॥
शब्दार्थ - अहम् = मैं, सर्वभूतेषु = सब भूतोंमें, समः समभावसे व्यापक हूँ, न = न (कोई), मे = मेरा, द्वेष्यः = अप्रिय है (और), न = न, प्रियः = प्रिय, अस्ति = है, तु = परंतु, ये जो भक्त, माम् = मुझको, भक्त्या = प्रेमसे, भजन्ति = भजते हैं, ते = वे, मयि = मुझमें हैं, च = और, अहम् = मैं, अपि = भी, तेषु = उनमें (प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।) *
अर्थ - मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट * हूँ ॥ २९ ॥
व्याख्या-'समोऽहं सर्वभूतेषु' - मैं स्थावर-जंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें व्यापकरूपसे और कृपा-दृष्टिसे सम हूँ। तात्पर्य है कि मैं सबमें समानरूपसे व्यापक, परिपूर्ण हूँ- 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' (गीता ९ । ४), और मेरी सबपर समानरूपसे कृपादृष्टि है - 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता ५। २९) ।
मैं कहीं कम हूँ और कहीं अधिक हूँ अर्थात् चींटी छोटी होनेसे उसमें कम हूँ और हाथी बड़ा होनेसे उसमें अधिक हूँ; अन्त्यजमें कम हूँ और ब्राह्मणमें अधिक हूँ; जो मेरे प्रतिकूल चलते हैं, उनमें मैं कम हूँ और जो मेरे अनुकूल चलते हैं, उनमें मैं अधिक हूँ- यह बात है ही नहीं। कारण कि सब-के-सब प्राणी मेरे अंश हैं, मेरे स्वरूप हैं।
मेरे स्वरूप होनेसे वे मेरेसे कभी अलग नहीं हो सकते और मैं भी उनसे कभी अलग नहीं हो सकता। इसलिये मैं सबमें समान हूँ, मेरा कहीं कोई पक्षपात नहीं है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राणियोंमें जन्मसे, कर्मसे, परिस्थितिसे, घटनासे, संयोग, वियोग आदिसे अनेक तरहसे विषमता होनेपर भी मैं सर्वथा-सर्वदा सबमें समान रीतिसे व्यापक हूँ, कहीं कम और कहीं ज्यादा नहीं हूँ।
न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः २ - पहले भगवान् ने कहा कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ, अब उसीका विवेचन करते हुए कहते हैं कि कोई भी प्राणी मेरे राग-द्वेषका विषय नहीं है।
२-यहाँ 'प्रिय' शब्दको रागका ही वाचक मानना चाहिये; क्योंकि प्राणिमात्रपर भगवान् की समान रीतिसे प्रियता है- 'सब मम प्रिय सब मम उपजाए' (मानस ७। ८६ । २); अतः भगवान् इसका निषेध कैसे कर सकते हैं? दूसरी बात, 'द्वेष्य' शब्दके साथ 'राग' शब्द ही ठीक बैठ सकता है; क्योंकि राग और द्वेष- यह द्वन्द्व है। इसी द्वन्द्वका यहाँ निषेध किया गया है।
तात्पर्य है कि मेरेसे विमुख होकर कोई प्राणी शास्त्रीय यज्ञ, दान आदि कितने ही शुभकर्म करे, तो भी वह मेरे 'राग' का विषय नहीं है और दूसरा शास्त्रनिषिद्ध अन्याय, अत्याचार आदि कितने ही अशुभकर्म करे, तो भी वह मेरे 'द्वेष' का विषय नहीं है। कारण कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान रीतिसे व्याप्त हूँ, सबपर मेरी समान रीतिसे कृपा है और सब प्राणी मेरे अंश होनेसे मेरेको समान रीतिसे प्यारे हैं।
हाँ, यह बात जरूर है कि जो सकामभावपूर्वक शुभकर्म करेगा, वह ऊँची गतिमें जायगा और जो अशुभ-कर्म करेगा, वह नीची गतिमें अर्थात् नरकों तथा चौरासी लाख योनियोंमें जायगा। परन्तु वे दोनों पुण्यात्मा और पापात्मा होनेपर भी मेरे राग-द्वेषके विषय नहीं हैं।
मेरे रचे हुए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये भौतिक पदार्थ भी प्राणियोंके अच्छे-बुरे आचरणों तथा भावोंको लेकर उनको रहनेका स्थान देनेमें, उनकी प्यास बुझानेमें, उनको प्रकाश देनेमें, उनको चलने-फिरनेके लिये अवकाश देनेमें राग-द्वेषपूर्वक विषमता नहीं करते, प्रत्युत सबको समान रीतिसे देते हैं। फिर प्राणी अपने अच्छे-बुरे आचरणोंको लेकर मेरे राग-द्वेषके विषय कैसे बन सकते हैं? अर्थात् नहीं बन सकते। कारण कि वे साक्षात् मेरे ही अंश हैं, मेरे ही स्वरूप हैं।
जैसे, किसी व्यक्तिके एक हाथमें पीड़ा हो रही है, वह हाथ शरीरके किसी काममें नहीं आता, दर्द होनेसे रातमें नींद नहीं लेने देता, काम करनेमें बाधा डालता है और दूसरा हाथ सब प्रकारसे शरीरके काम आता है। परन्तु उस व्यक्तिका किसी हाथके प्रति राग या द्वेष नहीं होता कि यह तो अच्छा है और यह मन्दा है; क्योंकि दोनों ही हाथ उसके अंग हैं और अपने अंगके प्रति किसीके राग-द्वेष नहीं होते।
ऐसे ही कोई मेरे वचनों, सिद्धान्तोंके अनुसार चलनेवाला हो, पुण्यात्मा-से-पुण्यात्मा हो और दूसरा कोई मेरे वचनों, सिद्धान्तोंका खण्डन करनेवाला हो, मेरे विरुद्ध चलनेवाला हो, पापी-से-पापी हो, तो उन दोनोंको लेकर मेरे राग-द्वेष नहीं होते। उनके अपने-अपने बर्तावोंमें, आचरणोंमें भेद है, इसलिये उनके परिणाम (फल) में भेद होगा, पर मेरा किसीके प्रति राग-द्वेष नहीं है। अगर किसीके प्रति राग-द्वेष होता; तो 'समोऽहं सर्वभूतेषु' यह कहना ही नहीं बनता; क्योंकि विषमताके कारण ही राग-द्वेष होते हैं।
'ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ' -परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं अर्थात् जिनकी संसारमें आसक्ति, राग, खिंचाव नहीं है, जो केवल मेरेको ही अपना मानते हैं, केवल मेरे ही परायण रहते हैं, केवल मेरी प्रसन्नताके लिये ही रात-दिन काम करते हैं और जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वाणीके द्वारा मेरी तरफ ही चलते हैं (गीता- नवें अध्यायका चौदहवाँ और दसवें अध्यायका नवाँ श्लोक), वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ।
प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ - इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो सामान्य जीव हैं तथा मेरी आज्ञाके विरुद्ध चलनेवाले हैं, वे मेरेमें और मैं उनमें नहीं हूँ, प्रत्युत वे अपनेको मेरेमें मानते ही नहीं। वे ऐसा कह देते हैं कि हम तो संसारी जीव हैं, संसारमें रहनेवाले हैं! वे यह नहीं समझते कि संसार, शरीर तो कभी एकरूप, एकरस रहता ही नहीं, तो ऐसे संसार, शरीरमें हम कैसे स्थित रह सकते हैं? इसको न जाननेके कारण ही वे अपनेको संसार, शरीरमें स्थित मानते हैं। उनकी अपेक्षा जो रात-दिन मेरे भजन-स्मरणमें लगे हुए हैं, बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदिमें और अपने-आपमें भी मेरेको ही मानते हैं, वे मेरेमें विशेषरूपसे हैं और मैं उनमें विशेषरूपसे हूँ।
दूसरा भाव यह है कि जो मेरे साथ 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं' ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, उनकी मेरे साथ इतनी घनिष्ठता हो जाती है कि मैं और वे एक हो जाते हैं-'तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्' (नारदभक्तिसूत्र ४१)। इसलिये वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ।
तीसरा भाव यह है कि उनमें 'मैं' पन नहीं रहता; क्योंकि 'मैं' पन एक परिच्छिन्नता है। इस परिच्छिन्नता (एक-देशीयता) के मिटनेसे वे मेरेमें ही रहते हैं।
अब कोई भगवान् से कहे कि आप भक्तोंमें विशेषतासे प्रकट हो जाते हैं और दूसरोंमें कमरूपसे प्रकट होते हैं-यह आपकी विषमता क्यों ? तो भगवान् कहते हैं कि भैया ! मेरेमें यह विषमता तो भक्तोंके कारण है। अगर कोई मेरा भजन करे, मेरे परायण हो जाय, शरण हो जाय और मैं उससे विशेष प्रेम न करूँ, उसमें विशेषतासे प्रकट न होऊँ; तो यह मेरी विषमता हो जायगी। कारण कि भजन करनेवाले और भजन न करनेवाले- दोनोंमें मैं बराबर ही रहूँ, तो यह न्याय नहीं होगा; प्रत्युत मेरी विषमता होगी। इससे भक्तोंके भजनका और उनका मेरी तरफ लगनेका कोई मूल्य ही नहीं रहेगा। यह विषमता मेरेमें न आ जाय, इसलिये जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११)। अतः यह विषमता मेरेमें भक्तोंके भावोंको लेकर ही है। *
- तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा ।।
(मानस २। २१९।३)
केवल भगवान् में ही नहीं, प्रत्युत जीवन्मुक्त श्रेष्ठ महापुरुषोंमें भी सामनेवालेके गुणों, भावों, आचरणों आदिको लेकर पक्षपात हो जाता है
वीतस्पृहाणामपि मुक्तिभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः ॥
(किराता० ३।१२)"
जैसे, कोई पुत्र अच्छा काम करता है तो सुपुत्र कहलाता है और खराब काम करता है तो कुपुत्र कहलाता है। यह सुपुत्र-कुपुत्रका भेद तो उनके आचरणोंके कारण हुआ है। माँ-बापके पुत्रभावमें कोई फरक नहीं पड़ता। गायके थनोंमें चींचड़ रहते हैं, वे दूध न पीकर खून पीते हैं, तो यह विषमता गायकी नहीं है, प्रत्युत चींचड़ोंकी अपनी बनायी हुई है। बिजलीके द्वारा कहीं बर्फ जम जाती है और कहीं आग पैदा हो जाती है, तो यह विषमता बिजलीकी नहीं है, प्रत्युत यन्त्रोंकी है। ऐसे ही जो भगवान् में रहते हुए भी भगवान् को नहीं मानते, उनका भजन नहीं करते, तो यह विषमता उन प्राणियोंकी ही है, भगवान् की नहीं। जैसे लकड़ीका टुकड़ा, काँचका टुकड़ा और आतशी शीशा - इन तीनोंमें सूर्यकी कोई विषमता नहीं है; परन्तु सूर्यके सामने (धूपमें) रखनेपर लकड़ीका टुकड़ा सूर्यकी किरणोंको रोक देता है, काँचका टुकड़ा किरणोंको नहीं रोकता और आतशी शीशा किरणोंको एक जगह केन्द्रित करके अग्नि प्रकट कर देता है। तात्पर्य है कि यह विषमता सामने आनेवाले पदार्थोंकी है, सूर्यकी नहीं। सूर्यकी किरणें तो सबपर एक समान ही पड़ती हैं।
वे पदार्थ उन किरणोंको जितनी पकड़ लेते हैं, उतनी ही वे किरणें उनमें प्रकट हो जाती हैं। ऐसे ही भगवान् सब प्राणियोंमें समानरूपसे व्यापक हैं, परिपूर्ण है। परन्तु जो प्राणी भगवान् के सम्मुख हो जाते हैं, भगवान् का और भगवान् की कृपाका प्राकट्य उनमें विशेषतासे हो जाता है। उनकी भगवान् में जितनी अधिक प्रियता होती है, भगवान् की भी उतनी ही अधिक प्रियता प्रकट हो जाती है। वे अपने-आपको भगवान् को दे देते हैं, तो भगवान् भी अपने-आपको उनको दे देते हैं। इस प्रकार भक्तोंके भावोंके अनुसार ही भगवान् की विशेष कृपा, प्रियता आदि प्रकट होती है।
तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य सांसारिक रागके कारण ही अपनेको संसारमें मानते हैं। जब वे भगवान् का प्रेमपूर्वक भजन करने लग जाते हैं, तब उनका सांसारिक राग मिट जाता है और वे अपनी दृष्टिसे भगवान् में हो जाते हैं और भगवान् उनमें हो जाते हैं। वास्तवमें भगवान् में ही थे भगवान् की दृष्टिसे तो वे और भगवान् भी उनमें थे। केवल रागके कारण वे अपनेको भगवान् में और भगवान् को अपनेमें नहीं मानते थे।
भगवान् ने यहाँ 'ये भजन्ति' पदोंमें 'ये' सर्वनाम पद दिया है, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य किसी भी देशके हों, किसी भी वेशमें हों, किसी भी अवस्थाके हों, किसी भी सम्प्रदायके हों, किसी भी वर्णके हों, किसी भी आश्रमके हों, कैसी ही योग्यतावाले हों, वे अगर भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, तो वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ। अगर भगवान् यहाँ किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, जाति आदिको लेकर कहते, तब तो भगवान् में विषमता, पक्षपातका होना सिद्ध हो जाता। परन्तु भगवान् ने 'ये' पदसे सबको भजन करनेकी और 'मैं भगवान् में हूँ और भगवान् मेरेमें हैं'- इसका अनुभव करनेकी पूरी स्वतन्त्रता दे रखी है।
परिशिष्ट भाव - 'समोऽहं सर्वभूतेषु' - जीव भगवान् को अपनी क्रियाएँ और पदार्थ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान् में कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे तो सदा समान ही रहते हैं। किसी वर्णविशेष, आश्रमविशेष, जातिविशेष, कर्मविशेष, योग्यताविशेष आदिका भी भगवान् पर कोई असर नहीं पड़ता। अतः प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति आदिका मनुष्य उनके सम्मुख हो सकता है, उनका भक्त हो सकता है, उनको प्राप्त कर सकता है।
न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः'- भगवान् की दृष्टिमें भगवान् के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं, फिर उनके द्वेष और प्रेमका विषय दूसरा कैसे हो सकता है ? जीव ही शुभाशुभ-कर्म और उनके फलसे राग-द्वेष करके संसारमें बँध जाता है और राग-द्वेषका त्याग करके मुक्त हो जाता है। इसलिये बन्धन और मुक्ति जीवकी ही होती है, भगवान् की नहीं। विषमता जीव करता है, भगवान् नहीं। भगवान् तो ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं।
चौथे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा था - 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्', वही बात भगवान् ने यहाँ 'ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्' पदोंसे कही है। भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे परिपूर्ण हैं, उनमें विषमता नहीं है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक भगवान् का भजन करते हैं, वे भगवान् में हैं और भगवान् उनमें हैं अर्थात् भगवान् उनमें विशेषरूपसे प्रकट हैं। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें जल सब जगह रहता है, पर कुएँमें वह विशेष प्रकट (आवरणरहित) होता है, ऐसे ही भगवान् संसारमात्रमें परिपूर्ण होते हुए भी भक्तोंमें विशेष प्रकट होते हैं। भक्तोंमें यह विलक्षणता प्रेमपूर्वक भगवान् का भजन करनेसे भगवत्कृपासे ही आयी है।
जैसे गायके शरीरमें रहनेवाला घी गायके काम नहीं आता, प्रत्युत उसके दूधसे निकाला हुआ घी ही उसके काम आता है, ऐसे ही संसारमें परिपूर्ण होनेमात्रसे भगवान् के द्वारा लोगोंके पाप नहीं कटते, प्रत्युत जो भगवान् के सम्मुख होते हैं, प्रेमपूर्वक उनका भजन करते हैं, उनके ही पाप कटते हैं*।
- सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
(मानस, सुन्दर० ४४।१)
सामान्य प्राणी भगवान् के अन्तर्गत होते हुए भी भगवान् को नहीं देखते, पर भक्त सब जगह भगवान् को देखते हैं (गीता-छठें अध्यायका तीसवाँ श्लोक) । भक्त भगवान् से प्रेम करते हैं और भगवान् भक्तसे प्रेम करते हैं - 'प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः' (गीता ७। १७)। इसलिये भक्त भगवान् में हैं और भगवान् भक्तोंमें हैं- 'मयि ते तेषु चाप्यहम्'। तात्पर्य यह निकला कि विषमता भगवान् में नहीं है, प्रत्युत प्राणियोंने ही विषमता की है, जो कि भगवान् से विमुख हैं।
तत्त्वसे तो भगवान् 'समोऽहं सर्वभूतेषु' हैं, पर अनुभव करनेमें भगवान् 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' हैं। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे परिपूर्ण होनेपर भी भगवान् का अनुभव भक्त ही करते हैं, अन्य प्राणी नहीं। वास्तवमें अनुभव करनेकी शक्ति भी भगवान् से ही प्राप्त होती है। मनुष्यका काम केवल भगवान् के सम्मुख होना है।
रामायणमें आया है-
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
(मानस, अरण्य० ३६।२)
तात्पर्य है कि भगवान् की सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान व्यापकता, प्रियता, कृपा तथा आत्मीयता है, पर भक्तोंमें वे विशेष दीखते हैं। भक्तोंमें यह विशेषता भगवान् में प्रेम होनेसे भगवत्कृपासे आती है और भगवान् की ही दी हुई होती है। भक्तोंकी भगवान् में जैसी तल्लीनता, प्रियता होती है, वैसी दूसरोंकी नहीं होती। इसलिये भगवान् की भी भक्तोंमें प्रियता होती है। भक्त और भगवान् की परस्पर प्रियताको 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' पदोंसे कहा गया है।
सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने 'ये भजन्ति तु मां भक्त्या' पदोंसे भक्तिपूर्वक अपना भजन करनेकी बात कही। अब आगेके श्लोकमें भजन करनेवालोंका विवेचन आरम्भ करते हैं।"
💡 आज की समस्या और समाधान आज की समस्या: "लोगों का व्यवहार अलग-अलग होता है, हम किससे कैसा व्यवहार करें?"
समाधान: भगवान कहते हैं — मैं सबके प्रति समभाव रखता हूँ, लेकिन जो मुझे प्रेम से भजते हैं — मैं भी उन्हें उसी प्रेम से उत्तर देता हूँ। 👉🏻 मतलब — बिना अपेक्षा के प्रेम करें, वही भक्ति का सार है।
❓कल का प्रश्न: "जब हम अपने सारे कर्म भगवान को अर्पित करते हैं, तो हमें क्या लाभ होता है?
✅ सही उत्तर: B. मोक्ष की प्राप्ति
👉🏻 जब हम अपने कर्मों का फल नहीं चाहते, तो हम कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं — यही मोक्ष है।
❓ आज का प्रश्न (उत्तर कल मिलेगा):
"भगवान सबमें समान भाव रखते हैं, लेकिन किसके प्रति विशेष कृपा करते हैं?"
A. ज्ञानी
B. भक्त
C. योगी
D. तपस्वी
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अध्याय 9 श्लोक 30 — "जो अत्यंत पापी भी यदि मेरी भक्ति करता है, तो वह भी साधु कहलाता है..." ➡️ जानेंगे — क्या सचमुच पापी भी उद्धार पा सकता है?
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हर दिन हम गीता के एक नए श्लोक की गहराई से व्याख्या करते हैं, जिससे आपको आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन में मार्गदर्शन मिले।
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कहते हैं कि अगर आप किसी समस्या से गुजर रहे हैं, तो श्रीमद्भगवद्गीता का चमत्कारिक प्रभाव यही है कि आप प्रभुजी का नाम लेकर कोई भी पृष्ठ खोलें, और उसके दाहिने पृष्ठ पर जो पहली पंक्ति होगी, वही आपकी समस्या का समाधान होगी।
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