❗पापी भी साधु कहलाए? | Chapter 9 Shlok 30 | भगवद गीता का सबसे चौंकाने वाला श्लोक | Jagat ka Saar
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
❗पापी भी साधु कहलाए? | Chapter 9 Shlok 30 | भगवद गीता का सबसे चौंकाने वाला श्लोक | Jagat ka Saar
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका "Geeta ka Saar – by Jagat ka Saar" के इस पावन श्रृंखला में। यहां हम हर दिन एक श्लोक को जीवन से जोड़कर समझते हैं।
कमेंट करने से पहले कृपया पूरा सुनें। अधूरा सुनकर गीता जी की अवहेलना ना करें। यदि आपके पास समय नहीं है तो प्रारंभ में ही स्किप कर सकते हैं।
आज का श्लोक है – अध्याय 9, श्लोक 30 जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि — "पापी भी अगर मेरी सच्ची भक्ति करे, तो वह साधु कहलाने योग्य है!"
लेकिन… क्या सच में ऐसा हो सकता है? आइए, इसे समझते हैं आज के ज्ञानयात्रा में।
कल हमने देखा — भगवान कहते हैं कि मैं हर प्राणी में समभाव रखता हूँ, लेकिन जो मेरी भक्ति करता है, मैं उसमें रम जाता हूँ। इसका मतलब ये नहीं कि भगवान पक्षपाती हैं, बल्कि वो प्रेमपूर्ण भक्ति को महत्व देते हैं।
अब बात करते हैं आज के श्लोक की —
"अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥"
भावार्थ: यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी मेरे प्रति अनन्य भक्ति करता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसका निश्चय उत्तम है।
जीवन से जुड़ाव: भगवान यहाँ यह नहीं कह रहे कि पाप सही है, वो कह रहे हैं कि अगर किसी का आज सुधर गया है, तो उसे उसके अतीत से मत आँको।
✅ Today’s Learning – आज की जीवन सीख
- कभी किसी के अतीत पर मत जाओ, हर कोई बदल सकता है
- ईश्वर अतीत नहीं, वर्तमान और नीयत देखते हैं
- सच्ची भक्ति से सबसे बड़ा पाप भी मिट सकता है
- हमें दूसरों को नकारात्मक नज़र से देखना बंद करना चाहिए
- सबको एक मौका देना चाहिए – बदलने का, उठने का, जुड़ने का
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
दुराचारी होनेपर भी दृढ़निश्चय एवं अनन्यभावयुक्त भगवद्भजनका महत्त्व ।
(श्लोक-३०)
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
उच्चारण की विधि - अपि, चेत्, सुदुराचारः, भजते, माम्, अनन्यभाक्, साधुः, एव, सः, मन्तव्यः, सम्यक्, व्यवसितः, हि, सः ॥ ३० ॥
शब्दार्थ - चेत् अर्थात् यदि (कोई), सुदुराचारः अर्थात् अतिशय दुराचारी, अपि अर्थात् भी, अनन्यभाक् अर्थात् अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर, माम् अर्थात् मुझको, भजते अर्थात् भजता है (तो), सः अर्थात् वह, साधुः अर्थात् साधु, एव अर्थात् ही, मन्तव्यः अर्थात् माननेयोग्य है, हि अर्थात् क्योंकि, सः अर्थात् वह, सम्यक् अर्थात् यथार्थ, व्यवसितः अर्थात् निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।
अर्थ - यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है किपरमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है ॥ ३० ॥
व्याख्या [कोई करोड़पति या अरबपति यह बात कह दे कि मेरे पास जो कोई आयेगा, उसको मैं एक लाख रुपये दूँगा, तो उसके इस वचनकी परीक्षा तब होगी, जब उससे सर्वथा ही विरुद्ध चलनेवाला, उसके साथ वैर रखनेवाला, उसका अनिष्ट करनेवाला भी आकर उससे एक लाख रुपये माँगे और वह उसको दे दे। इससे सबको यह विश्वास हो जायगा कि यह जो माँगे, उसको दे देता है। इसी भावको लेकर भगवान् सबसे पहले दुराचारीका नाम लेते हैं।]
'अपि चेत्' - सातवें अध्यायके पन्द्रहवें श्लोकमें आया है कि जो पापी होते हैं, वे मेरे शरण नहीं होते और यहाँ कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है-इन दोनों बातोंमें आपसमें विरोध प्रतीत होता है। इस विरोधको दूर करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' ये दो पद दिये गये हैं। तात्पर्य है कि सातवें अध्यायमें 'दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते' ऐसा कहकर उनके स्वभावका वर्णन किया है। परन्तु वे भी किसी कारणसे मेरे भजनमें लगना चाहें तो लग सकते हैं। मेरी तरफसे किसीको कोई मना नहीं है; क्योंकि किसी भी प्राणीके प्रति मेरा द्वेष नहीं है। ये भाव प्रकट करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' पदोंका प्रयोग किया है।
* कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
(मानस ५।४४।१)
'सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्' - जो सुष्ठ दुराचारी है, सांगोपांग दुराचारी है अर्थात् दुराचार करनेमें कोई कमी न रहे, दुराचारका अंग-उपांग न छूटे-ऐसा दुराचारी है, वह भी अनन्यभाक् होकर मेरे भजनमें लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है।
यहाँ 'भजते' क्रिया वर्तमानकी है, जिसका कर्ता है-सांगोपांग दुराचारी। इसका तात्पर्य हुआ कि पहले भी उसके दुराचार बनते आये हैं और अभी वर्तमानमें वह अनन्यभावसे भजन करता है, तो भी उसके द्वारा दुराचार सर्वथा नहीं छूटे हैं अर्थात् कभी-कभी किसी परिस्थितिमें आकर पूर्वसंस्कारवश उसके द्वारा पाप-क्रिया हो सकती है। ऐसी अवस्थामें भी वह मेरा भजन करता है। कारण कि उसका ध्येय (लक्ष्य) अन्यका नहीं रहा है अर्थात् उसका लक्ष्य अब धन, सम्पत्ति, आदर-सत्कार, सुख-आराम आदि प्राप्त करनेका नहीं रहा है। उसका एकमात्र लक्ष्य अनन्यभावसे मेरेमें लगनेका ही है।
अब शंका यह होती है कि ऐसा दुराचारी अनन्यभावसे भगवान् के भजनमें कैसे लगेगा ? उसके लगनेमें कई कारण हो सकते हैं; जैसे-
(१) वह किसी आफतमें पड़ जाय और उसको कहीं किंचिन्मात्र भी कोई सहारा न मिले। ऐसी अवस्थामें अचानक उसको सुनी हुई बात याद आ जाय कि 'भगवान् सबके सहायक हैं और उनकी शरणमें जानेसे सब काम ठीक हो जाता है' आदि।
(२) वह कभी किसी ऐसे वायुमण्डलमें चला जाय, जहाँ बड़े-बड़े अच्छे सन्त-महापुरुष हुए हैं और वर्तमानमें भी हैं, तो उनके प्रभावसे भगवान् में रुचि पैदा हो जाय।
(३) वाल्मीकि, अजामिल, सदन कसाई आदि पापी भी भगवान् के भक्त बन चुके हैं और भजनके प्रभावसे उनमें विलक्षणता आयी है-ऐसी कोई कथा सुन करके पूर्वका कोई अच्छा संस्कार जाग उठे, जो कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें रहता है*।
- सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
(मानस ५।४०।३)
(४) कोई प्राणी ऐसी आफतमें आ गया, जहाँ उसके बचनेकी कोई सम्भावना ही नहीं थी, पर वह बच गया। ऐसी घटनाविशेषको देखनेसे उसके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि कोई ऐसी विलक्षण शक्ति है, जो ऐसी आफतसे बचाती है। वह विलक्षण शक्ति भगवान् ही हो सकते हैं; इसलिये अपनेको भी उनके परायण हो जाना चाहिये।
(५) उसको किसी सन्तके दर्शन हो जायँ और उसका पतन करनेवाले दुष्कर्मोंको देखकर उसपर सन्तकी कृपा हो जाय; जैसे- वाल्मीकि, अजामिल आदि पापियोंपर सन्तोंकी कृपा हुई।
ऐसे कई कारणोंसे अगर दुराचारीका भाव बदल जाय, तो वह भगवान् के भजनमें अर्थात् भगवान् की तरफ लग सकता है। चोर, डाकू, लुटेरे, हत्या करनेवाले बधिक आदि भी अचानक भाव बदल जानेसे भगवान् के अच्छे भक्त हुए हैं- ऐसी कई कथाएँ पुराणोंमें तथा भक्तमाल आदि ग्रन्थोंमें आती हैं।
अब एक शंका होती है कि जो वर्षोंसे भजन-ध्यान कर रहे हैं, उनका मन भी तत्परतासे भगवान् में नहीं लगता, फिर जो दुराचारी-से-दुराचारी है, उसका मन भगवान् में तैलधारावत् कैसे लगेगा? यहाँ 'अनन्यभाक्' का अर्थ 'वह तैलधारावत् चिन्तन करता है' - यह नहीं है, प्रत्युत इसका अर्थ है- 'न अन्यं भजति' अर्थात् वह अन्यका भजन नहीं करता। उसका भगवान् के सिवाय अन्य किसीका सहारा, आश्रय नहीं है, केवल भगवान् का ही आश्रय है। जैसे पतिव्रता स्त्री केवल पतिका चिन्तन ही करती हो-ऐसी बात नहीं है। वह तो हरदम पतिकी ही बनी रहती है, स्वप्नमें भी वह दूसरोंकी नहीं होती। तात्पर्य है कि उसका तो एक पतिसे ही अपनापन रहता है। ऐसे ही उस दुराचारीका केवल भगवान् से ही अपनापन हो जाता है और एक भगवान् का ही आश्रय रहता है।
अनन्यभाक्' होनेमें खास बात है 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार अपनी अहंताको बदल देना। अहंता-परिवर्तनसे जितनी जल्दी शुद्धि आती है, जप, तप, यज्ञ, दान आदि क्रियाओंसे उतनी जल्दी शुद्धि नहीं आती। इस अहंताके परिवर्तनके विषयमें तीन बातें हैं
(१) अहंताको मिटाना - ज्ञानयोगसे अहंता मिट जाती है। जिस प्रकाशमें 'अहम्' (मैं पन) का भान होता है, वह प्रकाश मेरा स्वरूप है और एकदेशीयरूपमें प्रतीत होनेवाला 'अहम्' मेरा स्वरूप नहीं है। कारण यह है कि 'अहम्' दृश्य होता है, और जो दृश्य होता है, वह अपना स्वरूप नहीं होता। इस प्रकार दोनोंका विभाजन करके अपने ज्ञाप्तिमात्र स्वरूपमें स्थित होनेसे 'अहंता' मिट जाती है।
(२) अहंताको शुद्ध करना - कर्मयोगसे अहंता शुद्ध हो जाती है। जैसे, पुत्र कहता है कि 'मैं पुत्र हूँ और ये मेरे पिता हैं' तो इसका तात्पर्य है कि पिताकी सेवा करनामात्र मेरा कर्तव्य है; क्योंकि पिता-पुत्रका सम्बन्ध केवल कर्तव्य-पालनके लिये ही है। पिता मेरेको पुत्र न मानें, मेरेको दुःख दें, मेरा अहित करें, तो भी मेरेको उनकी सेवा करनी है, उनको सुख पहुँचाना है।
ऐसे ही माता, भाई, भौजाई, स्त्री, पुत्र, परिवारके प्रति भी मेरेको केवल अपने कर्तव्यका ही पालन करना है। उनके कर्तव्यकी तरफ मेरेको देखना ही नहीं है कि वे मेरे प्रति क्या करते हैं, दुनियाके प्रति क्या करते हैं। उनके कर्तव्यको देखना मेरा कर्तव्य नहीं है; क्योंकि दूसरोंके कर्तव्यको देखनेवाला अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है। अतः उनका तो मेरेपर पूरा अधिकार है, पर वे मेरे अनुकूल चलें-ऐसा मेरा किसीपर भी अधिकार नहीं है। इस प्रकार दूसरोंका कर्तव्य न देखकर केवल अपना कर्तव्य-पालन करनेसे अहंता शुद्ध हो जाती है। कारण कि अपने सुख-आरामकी कामना होनेसे ही अहंता अशुद्ध होती है।
(३) अहंताका परिवर्तन करना - भक्तियोगसे अहंता बदल जाती है। जैसे, विवाहमें पतिके साथ सम्बन्ध होते ही कन्याकी अहंता बदल जाती है और वह पतिके घरको ही अपना घर, पतिके धर्मको ही अपना धर्म मानने लग जाती है। वह पतिव्रता अर्थात् एक पतिकी ही हो जाती है, तो फिर वह माता-पिता, सास-ससुर आदि किसीकी भी नहीं होती। इतना ही नहीं, वह अपने पुत्र और पुत्रीकी भी नहीं होती; क्योंकि जब वह सती होती है, तब पुत्र-पुत्रीके, माता-पिताके स्नेहकी भी परवाह नहीं करती। हाँ, वह पतिके नाते सेवा सबकी कर देती है, पर उसकी अहंता केवल पतिकी ही हो जाती है।
ऐसे ही मनुष्यकी अहंता 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान् के साथ हो जाती है, तो उसकी अहंता बदल जाती है। इस अहंताके बदलनेको ही यहाँ 'अनन्यभाक्' कहा है।
'साधुरेव स मन्तव्यः' - अब यहाँ एक प्रश्न होता है कि वह पहले भी दुराचारी रहा है और वर्तमानमें भी उसके आचरण सर्वथा शुद्ध नहीं हुए हैं, तो दुराचारोंको लेकर उसको दुराचारी मानना चाहिये या अनन्यभावको लेकर साधु ही मानना चाहिये ? तो भगवान् कहते हैं कि उसको तो साधु ही मानना चाहिये। यहाँ 'मन्तव्यः' (मानना चाहिये) विधि-वचन है अर्थात् यह भगवान् की विशेष आज्ञा है।
माननेकी बात वहीं कही जाती है, जहाँ साधुता नहीं दीखती। अगर उसमें किंचिन्मात्र भी दुराचार न होते, तो भगवान् 'उसको साधु ही मानना चाहिये' ऐसा क्यों कहते ? तो भगवान् के कहनेसे यही सिद्ध होता है कि उसमें अभी दुराचार हैं। वह दुराचारोंसे सर्वथा रहित नहीं हुआ है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि वह अभी सांगोपांग साधु नहीं हुआ है, तो भी उसको साधु ही मानना चाहिये अर्थात् बाहरसे उसके आचरणोंमें, क्रियाओंमें कोई कमी भी देखनेमें आ जाय, तो भी वह असाधु नहीं है।
इसका कारण यह है कि वह 'अनन्यभाक्' हो गया अर्थात् 'मैं केवल भगवान् का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं; मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है' इस प्रकार वह भीतरसे ही भगवान् का हो गया, उसने भीतरसे ही अपनी अहंता बदल दी। इसलिये अब उसके आचरण सुधरते देरी नहीं लगेगी; क्योंकि अहंताके अनुसार ही सब आचरण होते हैं।
उसको साधु ही मानना चाहिये - ऐसा भगवान् को क्यों कहना पड़ रहा है ? कारण कि लोगोंमें यह रीति है कि वे किसीके भीतरी भावोंको न देखकर बाहरसे जैसा आचरण देखते हैं, वैसा ही उसको मान लेते हैं। जैसे, एक आदमी वर्षोंसे परिचित है अर्थात् भजन करता है, अच्छे आचरणोंवाला है-ऐसा बीसों, पचीसों वर्षोंसे जानते हैं। पर एक दिन देखा कि वह रात्रिके समय एक वेश्याके यहाँसे बाहर निकला, तो उसे देखते ही लोगोंके मनमें आता है कि देखो ! हम तो इसको बड़ा अच्छा मानते थे, पर यह तो वैसा नहीं है, यह तो वेश्यागामी है! ऐसा विचार आते ही उनका जो अच्छेपनका भाव था, वह उड़ जाता है। जो कई दिनोंकी श्रद्धा-भक्ति थी, वह उठ जाती है। इसी तरहसे लोग वर्षोंसे किसी व्यक्तिको जानते हैं कि वह अन्यायी है, पापी है, दुराचारी है और वही एक दिन गंगाके किनारे स्नान किये हुए, हाथमें गोमुखी लिये हुए बैठा है।
उसका चेहरा बड़ा प्रसन्न है। उसको देखकर कोई कहता है कि देखो भगवान् का भजन कर रहा है, बड़ा अच्छा पुरुष है, तो दूसरा कहता है कि अरे ! तुम इसको जानते नहीं, मैं जानता हूँ; यह तो ऐसा-ऐसा है, कुछ नहीं है, केवल पाखण्ड करता है। इस प्रकार भजन करनेपर भी लोग उसको वैसा ही पापी मान लेते हैं और उधर साधन-भजन करनेवालेको भी वेश्याके घरसे निकलता देखकर खराब मान लेते हैं। उसको न जाने किस कारणसे वेश्याने बुलाया था, क्या पता वह दयापरवश होकर वेश्याको शिक्षा देनेके लिये गया हो, उसके सुधारके लिये गया हो - उस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जाती।
जिनका अन्तःकरण मैला हो, वे मैलापनकी बात करके अपने अन्तःकरणको और मैला कर लेते हैं। उनका अन्तःकरण मैलापनकी बात ही पकड़ता है। परन्तु उपर्युक्त दोनों प्रकारकी बातें होनेपर भी भगवान् की दृष्टि मनुष्यके भावपर ही रहती है, आचरणोंपर नहीं-
'रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की ॥'
(मानस १। २९।३)
क्योंकि भगवान् भावग्राही हैं- ' भावग्राही जनार्दनः ।'
'सम्यग्व्यवसितो हि सः' - दूसरे अध्यायमें कर्मयोगके प्रकरणमें 'व्यवसायात्मिका बुद्धि' की बात आयी है (इकतालीसवाँ श्लोक) अर्थात् वहाँ पहले बुद्धिमें यह निश्चय होता है कि 'मेरेको राग-द्वेष नहीं करने हैं, कर्तव्य-कर्म करते हुए सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना है।'
अतः कर्मयोगीकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है और यहाँ कर्ता स्वयं व्यवसित है- 'सम्यग्व्यवसितः ।' कारण कि 'मैं केवल भगवान् का ही हूँ, अब मेरा काम केवल भजन करना ही है'- यह निश्चय स्वयंका है, बुद्धिका नहीं। अतः सम्यक् निश्चयवालेकी स्थिति भगवान् में है। तात्पर्य यह हुआ कि वहाँ निश्चय 'करण' (बुद्धि) में है और यहाँ निश्चय 'कर्ता' (स्वयं) में है। करणमें निश्चय होनेपर भी जब कर्ता परमात्मतत्त्वसे अभिन्न हो जाता है, तो फिर कर्तामें निश्चय होनेपर करणमें भी निश्चय हो जाय- इसमें तो कहना ही क्या है!
जहाँ बुद्धिका निश्चय होता है, वहाँ वह निश्चय तबतक एकरूप नहीं रहता, जबतक स्वयं कर्ता उस निश्चयके साथ मिल नहीं जाता। जैसे; सत्संग-स्वाध्यायके समय मनुष्योंका ऐसा निश्चय होता है कि अब तो हम केवल भजन-स्मरण ही करेंगे। परन्तु यह निश्चय सत्संग-स्वाध्यायके बाद स्थिर नहीं रहता। इसमें कारण यह है कि उनकी स्वयंकी स्वाभाविक रुचि केवल परमात्माकी तरफ चलनेकी नहीं है, प्रत्युत साथमें संसारका सुख-आराम आदि लेनेकी भी रुचि रहती है। परन्तु जब स्वयंका यह निश्चय हो जाता है कि अब हमें परमात्माकी तरफ ही चलना है, तो फिर यह निश्चय कभी मिटता नहीं; क्योंकि यह निश्चय स्वयंका है।
जैसे, कन्याका विवाह होनेपर 'अब मैं पतिकी हो गयी, अब मेरेको पतिके घरका काम ही करना है' ऐसा निश्चय स्वयंमें हो जानेसे यह कभी मिटता नहीं, प्रत्युत बिना याद किये ही हरदम याद रहता है। इसका कारण यह है कि उसने स्वयंको ही पतिका मान लिया। ऐसे ही जब मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि 'मैं भगवान् का हूँ और अब केवल भगवान् का ही काम (भजन) करना है, भजनके सिवाय और कोई काम नहीं, किसी कामसे कोई मतलब नहीं, तो यह निश्चय स्वयंका होनेसे सदाके लिये पक्का हो जाता है, फिर कभी मिटता ही नहीं।' इसलिये भगवान् कहते हैं कि उसको साधु ही मानना चाहिये। केवल माननेकी ही बात नहीं, स्वयंका निश्चय होनेसे वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है- 'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा' (९।३१)।
भक्तियोगकी दृष्टिसे सम्पूर्ण दुर्गुण-दुराचार भगवान् की विमुखतापर ही टिके रहते हैं। जब प्राणी अनन्यभावसे भगवान् के सम्मुख हो जाता है, तब सभी दुर्गुण-दुराचार मिट जाते हैं।
परिशिष्ट भाव - ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धिकी प्रधानता रहती है- 'एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु' (गीता २। ३९)। इसलिये ज्ञानयोगी और कर्मयोगीकी बुद्धि व्यवसित होती है- 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' (गीता २।४१), 'व्यवसायात्मिका बुद्धिः ' (गीता २। ४४)।
परन्तु भक्तियोगमें स्वयंकी प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं व्यवसित होता है - 'सम्यग्व्यवसितो हि सः'।
मन-बुद्धिमें बैठी हुई बातकी विस्मृति हो सकती है, पर स्वयंमें बैठी हुई बातकी विस्मृति नहीं हो सकती। कारण कि मन-बुद्धि अपने साथ निरन्तर नहीं रहते, सुषुप्तिमें हमें उनके अभावका अनुभव होता है, पर स्वयंके अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता। उस स्वयंमें जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है। इसलिये 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं'- यह स्वीकृति स्वयंमें होती है, मन-बुद्धिमें नहीं। एक बार यह स्वीकृति होनेपर फिर कभी अस्वीकृति होती ही नहीं; क्योंकि स्वयं मूलमें भगवान् का ही अंश होनेसे भगवान् से अभिन्न है। परन्तु भूलसे यह प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध स्वीकार कर लेता है (गीता-पन्द्रहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक)। अतः वास्तवमें केवल अपनी भूल ही मिटती है। भूल मिटते ही भगवान् के नित्य सम्बन्धकी स्वतः जागृति हो जाती है- 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा' (गीता १८। ७३)। दूसरेके साथ सम्बन्ध माना था, यही भूल थी, मोह था।
सम्बन्ध-अब आगेके श्लोकमें सम्यक् निश्चयका फल बताते हैं।"
✅ Yesterday’s Question – उत्तर
प्रश्न था: श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, भगवान किसके प्रेम से मोहित हो जाते हैं?
सही उत्तर: C. जो प्रेम और भक्ति से उन्हें अर्पित करता है।
✅ Today’s Question – आज का प्रश्न
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, कोई अत्यंत पापी भी कब साधु कहलाता है?
A. जब वह तपस्या करे
B. जब वह ज्ञान प्राप्त करे
C. जब वह भगवान की एकनिष्ठ भक्ति करे
D. जब वह दान-पुण्य करे
अपना उत्तर नीचे कमेंट में ज़रूर लिखें। सही उत्तर कल के वीडियो में मिलेगा।
कल हम जानेंगे अध्याय 9, श्लोक 31 — जहां भगवान कहते हैं कि — "ऐसा भक्त जल्दी से धर्मात्मा बन जाता है और चिरकालिक शांति को प्राप्त करता है।" यानी बदलाव का असर सिर्फ नाम का नहीं, पूरा जीवन बदल सकता है!
आज का श्लोक हमें यही सिखाता है — कोई भी मनुष्य स्थायी रूप से पापी नहीं होता। सच्ची नीयत और भक्ति के साथ वो फिर से ईश्वर के पथ पर चल सकता है।
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