❗पाप से पुण्य तक की यात्रा | Chapter 9 Shlok 31 | श्रीकृष्ण का बदलाव का सूत्र | Jagat ka Saar
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
❗पाप से पुण्य तक की यात्रा | Chapter 9 Shlok 31 | श्रीकृष्ण का बदलाव का सूत्र | Jagat ka Saar
नमस्कार मेरे आत्मीय साथियों! स्वागत है आपका "Geeta ka Saar – by Jagat ka Saar" के आज के दिव्य ज्ञान सत्र में। हर दिन हम गीता के एक श्लोक से जीवन को देखने का नया दृष्टिकोण सीखते हैं।
एक विनम्र अनुरोध: कृपया कमेंट करने से पहले पूरा सुनें, अधूरा सुनकर गीता जी की अवहेलना न करें। अगर आपके पास अभी समय नहीं है, तो आप प्रारंभ में ही skip कर सकते हैं — ना हम बुरा मानेंगे और ना ही प्रभु।
✅ Recap – कल का श्लोक (Chapter 9, Shlok 30)
कल हमने जाना कि — अगर कोई अत्यंत पापी भी भगवान की सच्ची और एकनिष्ठ भक्ति करता है, तो वह साधु कहलाने योग्य है। भगवान हमारे अतीत को नहीं, हमारे वर्तमान संकल्प और नीयत को देखते हैं।
✅ Today’s Introduction – Chapter 9, Shlok 31
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥"
भावार्थ: "वह (भक्त) शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और चिरकाल की शांति को प्राप्त करता है। हे अर्जुन! तू यह घोषणा कर दे कि मेरा भक्त कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।"
जीवन से जुड़ाव: भगवान यहाँ गारंटी देते हैं कि – जो सच्ची भावना से जुड़ गया, उसका अतीत चाहे कैसा भी हो, वो जल्दी ही धर्मात्मा बनता है और भगवान उसे कभी छोड़ते नहीं।
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
(श्लोक-३१)
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
उच्चारण की विधि - क्षिप्रम्, भवति, धर्मात्मा, शश्वत्, शान्तिम्, निगच्छति, कौन्तेय, प्रति, जानीहि, न, मे, भक्तः, प्रणश्यति ॥ ३१॥
शब्दार्थ - क्षिप्रम् अर्थात् शीघ्र ही, धर्मात्मा अर्थात् धर्मात्मा, भवति अर्थात् हो जाता है (और), शश्वत् अर्थात् सदा रहनेवाली, शान्तिम् अर्थात् परमशान्तिको, निगच्छति अर्थात् प्राप्त होता है, कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन ! (तू), प्रति अर्थात् निश्चयपूर्वक सत्य, जानीहि अर्थात् जान (कि), मे अर्थात् मेरा, भक्तः अर्थात् भक्त, न प्रणश्यति अर्थात् नष्ट नहीं होता।
अर्थ - वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ॥ ३१ ॥
व्याख्या-'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा' - वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान् पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्माकी प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होनेमें क्या देरी लगेगी ? अब वह पापात्मा कैसे रहेगा ? क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही, केवल संसारके सम्बन्धके कारण उसमें पापात्मापन आया था, जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलनेसे संसारका सम्बन्ध नहीं रहा, तो वह ज्यों-का-त्यों (धर्मात्मा) रह गया।
यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था। संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्यों-का-त्यों पवित्र रह गया।
पाप करनेकी भावना रहते हुए मनुष्य 'मेरेको केवल भगवान् की तरफ ही चलना है' - ऐसा निश्चय नहीं कर सकता, यह बात ठीक है। परन्तु पापी मनुष्य ऐसा निश्चय नहीं कर सकता- यह नियम नहीं है। कारण कि जीवमात्र परमात्माका अंश होनेसे तत्त्वतः निर्दोष है। संसारकी आसक्तिके कारण ही उसमें आगन्तुक दोष आ जाते हैं।
यदि उसके मनमें पापोंसे घृणा हो जाय और ऐसा निश्चय हो जाय कि अब भगवान् का ही भजन करना है, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। कारण कि जहाँ संसारकी कामना है, वहीं भगवान् की तरफ चलनेकी रुचि भी है। अगर भगवान् की तरफ चलनेकी रुचि जम जाय, तो कामना, आसक्ति नष्ट हो जाती है। फिर भगवत्प्राप्तिमें देरी नहीं लग सकती।
वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है- इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसमें जो यत्किंचित् दुराचार दीखते हैं, वे भी टिकेंगे नहीं। कारण कि सब-के-सब दुराचार टिके हुए हैं- संसारको महत्त्व देनेपर। परन्तु जब वह संसारकी कामनासे रहित होकर केवल भगवान् को ही चाहता है, तब उसके भीतर संसारका महत्त्व न रहकर केवल भगवान् का महत्त्व हो जाता है। भगवान् का महत्त्व होनेसे वह धर्मात्मा हो जाता है।
मार्मिक बात
यह एक सिद्धान्त है कि कर्ताके बदलनेपर क्रियाएँ अपने-आप बदल जाती हैं, जैसे कोई धर्मरूपी क्रिया करके धर्मात्मा होना चाहता है, तो उसे धर्मात्मा होनेमें देरी लगेगी। परन्तु अगर वह कर्ताको ही बदल दे अर्थात् 'मैं धर्मात्मा हूँ' ऐसे अपनी अहंताको ही बदल दे, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जायगा।
ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी भी 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं' ऐसे अपनी अहंताको बदल देता है, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है, साधु हो जाता है, भक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब संसार-शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन करके संयोगजन्य सुख चाहने लगता है, तब वह 'कामात्मा' (गीता - दूसरे अध्यायका तैंतालीसवाँ श्लोक) बन जाता है और जब संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान् के साथ अनन्य सम्बन्ध जोड़ लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब वह 'धर्मात्मा' बन जाता है।
साधारण दृष्टिसे लोग यही समझते हैं कि मनुष्य सत्य बोलनेसे सत्यवादी होता है और चोरी करनेसे चोर होता है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। जब स्वयं सत्यवादी होता है अर्थात् 'मैं सत्य बोलनेवाला हूँ' ऐसी अहंताको अपनेमें पकड़ लेता है, तब वह सत्य बोलता है और सत्य बोलनेसे उसकी सत्यवादिता दृढ़ हो जाती है। ऐसे ही चोर होता है, वह 'मैं चोर हूँ' ऐसी अहंताको पकड़कर ही चोरी करता है और चोरी करनेसे उसका चोरपना दृढ़ हो जाता है। परन्तु जिसकी अहंतामें 'मैं चोर हूँ ही नहीं' ऐसा दृढ़ भाव है, वह चोरी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि अहंताके परिवर्तनसे क्रियाओंका परिवर्तन हो जाता है।
इन दोनों दृष्टान्तोंसे यह सिद्ध हुआ कि कर्ता जैसा होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं और जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही कर्तापन दृढ़ हो जाता है। ऐसे ही यहाँ दुराचारी भी 'अनन्यभाक्' होकर अर्थात् 'मैं केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं' ऐसे अनन्यभावसे भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तो उसकी अहंतामें 'मैं भगवान् का हूँ, संसारका नहीं हूँ' यह भाव दृढ़ हो जाता है, जो कि वास्तवमें सत्य है। इस प्रकार अहंताके बदल जानेपर क्रियाओंमें किंचिन्मात्र कमी रहनेपर भी वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है।
यहाँ शंका हो सकती है कि पूर्वश्लोकमें भगवान् 'सुदुराचारः' कहकर आये हैं, तो फिर यहाँ भगवान् ने उसको 'धर्मात्मा' क्यों कहा है? इसका समाधान है कि दुराचारीके दुराचार मिट जायँ, तो वह सदाचारी अर्थात् धर्मात्मा ही होगा। अतः सदाचारी कहो या धर्मात्मा कहो एक ही बात है।
'शश्वच्छान्तिं निगच्छति'- केवल धार्मिक क्रियाओंसे जो धर्मात्मा बनता है, उसके भीतर भोग और ऐश्वर्यकी कामना होनेसे उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं, पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती।
दुराचारीकी अहंता बदलनेपर जब वह भगवान् के साथ भीतरसे एक हो जाता है, तब उसके भीतर कामना नहीं रह सकती, असत् का महत्त्व नहीं रह सकता। इसलिये उसको निरन्तर रहनेवाली शान्ति मिल जाती है।
दूसरा भाव यह है कि स्वयं परमात्माका अंश होनेसे 'चेतन अमल सहज सुखरासी' है। अतः उसमें अपने स्वरूपकी जो अनादि अनन्त स्वतः सिद्ध शान्ति है, धर्मात्मा होनेसे अर्थात् भगवान् के साथ अनन्यभावसे सम्बन्ध होनेसे वह शाश्वती शान्ति प्राप्त हो जाती है। केवल संसारके साथ सम्बन्ध माननेसे ही उसका अनुभव नहीं हो रहा था।
'कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति'- यहाँ 'मेरे भक्तका पतन नहीं होता' ऐसी प्रतिज्ञा भगवान् अर्जुनसे करवाते हैं, स्वयं नहीं करते। इसका आशय यह है कि अभी युद्धका आरम्भ होनेवाला है और भगवान् ने पहले ही हाथमें शस्त्र न लेनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; परन्तु जब आगे भीष्मजी यह प्रतिज्ञा कर लेंगे कि
आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गंगा-जननीको शान्तनु सुत न कहाऊँ ॥
तो उस समय भगवान् की प्रतिज्ञा तो टूट जायगी, पर भक्त (भीष्मजी) की प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी। भगवान् ने चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'भक्तोऽसि मे सखा चेति' कहकर अर्जुनको अपना भक्त स्वीकार किया है।
अतः भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि भैया ! तू प्रतिज्ञा कर ले। कारण कि तेरे द्वारा प्रतिज्ञा करनेपर अगर मैं खुद भी तेरी प्रतिज्ञा तोड़ना चाहूँगा, तो भी तोड़ नहीं सकूँगा, फिर और तोड़ेगा ही कौन ? तात्पर्य हुआ कि अगर भक्त प्रतिज्ञा करे, तो उस प्रतिज्ञाके विरुद्ध मेरी प्रतिज्ञा भी नहीं चलेगी। मेरे भक्तका विनाश अर्थात् पतन नहीं होता- यह कहनेका तात्पर्य है कि जब वह सर्वथा मेरे सम्मुख हो गया है, तो अब उसके पतनकी किंचिन्मात्र भी सम्भावना नहीं रही। पतनका कारण तो शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही था। उस माने हुए सम्बन्धसे सर्वथा विमुख होकर जब वह अनन्यभावसे मेरे ही सम्मुख हो गया, तो अब उसके पतनकी सम्भावना हो ही कैसे सकती है ?
दुराचारी भी जब भक्त हो सकता है, तो फिर भक्त होनेके बाद वह पुनः दुराचारी भी हो सकता है-ऐसा न्याय कहता है। इस न्यायको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि यह न्याय यहाँ नहीं लगता। मेरे यहाँ तो दुराचारी-से-दुराचारी भी भक्त बन सकते हैं, पर भक्त होनेके बाद उनका फिर पतन नहीं हो सकता अर्थात् वे फिर दुराचारी नहीं बन सकते। इस प्रकार भगवान् के न्यायमें भी दया भरी हुई है। अतः भगवान् न्यायकारी और दयालु-दोनों ही सिद्ध होते हैं।
परिशिष्ट भाव - जैसे रोगीका वैद्यके साथ सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही अपनी निर्बलताका और भगवान् की सर्वसमर्थताका विश्वास होनेपर मनुष्यका भगवान् के साथ सम्बन्ध हो जाता है। तात्पर्य है कि जब मनुष्य संसारके दुःखोंसे घबरा जाता है और उनको मिटानेमें अपनी निर्बलताका अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान् की कृपाशक्तिसे मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है, मैं सांसारिक दुःखोंसे बच सकता हूँ, तब वह तत्काल 'भक्त' हो जाता है- 'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा'। भूखे व्यक्तिको अन्न मिल जाय तो क्या भोजन करनेमें देरी लगेगी ?
जबतक मनुष्यको अपनेमें कुछ बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तबतक वह 'अनन्यभाक्' नहीं होता। वह 'अनन्यभाक्' तभी होता है, जब उसको दूसरा कोई उसके दुःखोंको मिटानेवाला नहीं दीखता। 'अनन्यभाक्' होते ही वह धर्मात्मा अर्थात् भगवान् का भक्त हो जाता है।
भक्तका पतन नहीं होता; क्योंकि वह भगवन्निष्ठ होता है अर्थात् उसके साधन और साध्य भगवान् ही होते हैं; उसका अपना बल नहीं होता, प्रत्युत भगवान् का ही बल होता है। यहाँ शंका हो सकती है कि अगर भक्तका पतन नहीं होता तो भगवान् ने अठारहवें अध्यायमें अर्जुनको 'अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनद्ध्यसि' (१८। ५८)
यदि तू अहंकारके कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा'- ऐसा क्यों कहा? जबकि भगवान् अर्जुनको अपना भक्त भी मानते हैं- ' भक्तोऽसि मे सखा चेति' (गीता ४। ३) ? इसका समाधान है कि भक्तका पतन तभी हो सकता है, जब वह भगवान् का आश्रय छोड़कर अहंकारका आश्रय ले ले- 'अहंकारान्न श्रोष्यसि'। भगवान् का आश्रय रहते हुए उसका पतन नहीं हो सकता।
भक्त भगवान् के छोटे बालक हैं और ज्ञानी बड़े बालक हैं। जैसे माँको छोटे-बड़े सभी बालक समानरूपसे प्रिय लगते हैं, पर वह सँभाल छोटे बालककी ही करती है, बड़ेकी नहीं। कारण कि छोटा बालक सर्वथा माँके ही आश्रित रहता है; अतः उसके सँभालकी जितनी आवश्यकता है, उतनी बड़ेके लिये आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही भगवान् अपने आश्रित भक्तकी पूरी सँभाल करते हैं और स्वयं उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता-नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। परन्तु ज्ञानीके योगक्षेमका वहन कौन करे ? इसलिये ज्ञानका साधक तो योगभ्रष्ट हो सकता है, पर भक्त योगभ्रष्ट नहीं हो सकता। ब्रह्मादि देवता भगवान् से कहते हैं-
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन-स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः । आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्गयः ॥
(श्रीमद्भा० १०।२। ३२)
'हे कमलनयन ! जो लोग आपके चरणोंकी शरण नहीं लेते और आपकी भक्तिसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको मुक्त तो मानते हैं, पर वास्तवमें वे बद्ध ही हैं। वे यदि कष्टपूर्वक साधन करके ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं।'
तथा न ते माधव तावकाःक्वचिद् भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः । त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥
(श्रीमद्भा० १०।२। ३३)
'परन्तु भगवन् ! जो आपके भक्त हैं, जिन्होंने आपके चरणोंमें अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियोंकी तरह अपने साधनसे गिरते नहीं। प्रभो! आपके द्वारा सुरक्षित होनेके कारण वे बड़े-बड़े विघ्न डालनेवाली सेनाके सरदारोंके सिरपर पैर रखकर निर्भय होकर विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्गमें रुकावट नहीं डाल सकता।'
भगवान् की स्तुति करते हुए वेद कहते हैं-
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी। ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥ बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे। जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ।।
(मानस, उत्तर० १३।३)
ज्ञानयोगके साधकमें कुछ कमी रहनेसे पतन हो सकता है, पर भक्तियोगके साधकमें कुछ कमी रहनेपर भी पतन नहीं होता। इसलिये भगवान् कहते हैं-
बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः । प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते ।।
(श्रीमद्भा० ११।१४।१८)
'उद्धवजी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं, अपनी ओर खींचते रहते हैं तो भी वह प्रतिक्षण बढ़नेवाली मेरी भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसे पराजित नहीं होता।'
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्।
(महाभारत, अनु० १४९।१३१)
' भगवान् के भक्तोंका कहीं कभी भी अशुभ नहीं होता।'
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू ॥
(मानस, बाल० १२६।४)
'कौन्तेय प्रतिजानीहि' - भगवान् अर्जुनको प्रतिज्ञा करनेके लिये कहते हैं; क्योंकि भक्तकी प्रतिज्ञा भगवान् भी टाल नहीं सकते। भक्ति भगवान् की कमजोरी है। इसलिये भगवान् ने दुर्वासासे कहा है-
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिरर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥
(श्रीमद्भा० ९।४।६३)
'हे द्विज ! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं। मुझे भक्तजन बहुत प्रिय हैं। उनका मेरे हृदयपर पूर्ण अधिकार है।'
'कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति' - इन पदोंसे साधकको यह दृढ़ विश्वास करना चाहिये कि मेरा पतन हो ही नहीं सकता; क्योंकि मैं भगवान् का ही हूँ।
सम्बन्ध-इस प्रकरणमें भगवान् ने अपनी भक्तिके सात अधिकारी बताये हैं। उनमेंसे दुराचारीका वर्णन दो श्लोकोंमें किया। अब आगेके श्लोकमें भक्तिके चार अधिकारियोंका वर्णन करते हैं।"
✅ Precap – कल का श्लोक (Chapter 9, Shlok 32)
कल हम जानेंगे — "स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि में जन्मे लोग भी मेरी भक्ति करके परम गति को प्राप्त कर सकते हैं।" यानि ईश्वर किसी का जाति, लिंग, वर्ग नहीं देखते — केवल भक्ति देखते हैं।
✅ Today’s Learning – आज की सीख
- सच्ची भक्ति से जीवन में शीघ्र परिवर्तन संभव है।
- भगवान कभी अपने भक्तों को त्यागते नहीं हैं।
- धार्मिक बनना तुरंत संभव नहीं, लेकिन शुरुआत से होता है बदलाव।
- ईश्वर पर विश्वास रखो, वो तुम्हें संभाल लेंगे।
- दूसरों के बदलते जीवन को देख कर उन्हें जज न करें — प्रेरणा लें।
✅ Yesterday’s Question – उत्तर
प्रश्न था: भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, कोई अत्यंत पापी भी कब साधु कहलाता है? सही उत्तर: C. जब वह भगवान की एकनिष्ठ भक्ति करे।
✅ Today’s Question – आज का प्रश्न
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, उनका भक्त किस प्रकार का फल पाता है? A. वह धीरे-धीरे पुण्य आत्मा बनता है B. उसे जन्मों के पाप भुगतने होते हैं C. वह कभी शांति नहीं पाता D. वह त्याग करता है
अपना उत्तर नीचे कमेंट में ज़रूर दें – कल के वीडियो में मिलेगा सही उत्तर और व्याख्या।
तो साथियों, आज हमने जाना कि भगवान केवल क्षमा नहीं करते, बल्कि अपने भक्त की सुरक्षा की गारंटी लेते हैं।
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याद रखिए – अधूरा सुनकर गीता जी की अवहेलना ना करें। अगर समय ना हो, तो प्रारंभ में ही skip कर लें – ना हम बुरा मानेंगे, ना ही प्रभु।
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