गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 1 - 🕉️ "भगवान की दिव्य विभूतियों का आरंभ




 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 1 - 🕉️ "भगवान की दिव्य विभूतियों का आरंभ


🕉️ Intro

🙏 जय श्रीकृष्ण मित्रों! स्वागत है आपका — "गीता का सार - जगत का सार" में। कृपया इस दिव्य ज्ञान को अधूरा न सुनें, क्योंकि इससे गीता जी का अनादर हो सकता है। यदि आपके पास समय कम है, तो आप शुरुआत में ही छोड़ सकते हैं। हम या भगवान बुरा नहीं मानेंगे।


पिछले श्लोक में भगवान ने बताया कि – "मुझमें मन लगाओ, भक्ति करो, पूजा करो और नमस्कार करो – ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे।" यह एक पूर्ण भक्ति मार्ग था — सरल, स्पष्ट और शुद्ध।


📚 Today's Shlok Introduction (Chapter 10, Shlok 1)



श्लोक: "श्रीभगवानुवाच — भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः। यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥"

➡️ भावार्थ: भगवान कहते हैं — “हे महाबाहो अर्जुन! अब तुम मेरी वह परम वाणी फिर से सुनो, जिसे मैं तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्वक और तुम्हारे हित के लिए कहने जा रहा हूँ।”


"श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

अथ दशमोऽध्यायः

अवतरणिका

श्रीभगवान् सातवें अध्यायमें अपने हृदयकी बात-विज्ञानसहित ज्ञान कह रहे थे। जब बीचमें ही आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनके प्रश्न करनेपर अपनी बात कहनेमें कुछ परिवर्तन हुआ, तब भगवान् ने पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहनेके लिये नवें अध्यायका विषय आरम्भ किया और उसकी समाप्ति भगवत्परायणतामें की। फिर भी भगवान् के मनमें और कहनेका भाव रहा। उन्हें अपने कथनपर संतोष नहीं हुआ। जैसे भक्तको भगवान् की बात सुनते हुए तृप्ति नहीं होती (गीता-दसवें अध्यायका अठारहवाँ श्लोक), ऐसे ही अपने प्यारे भक्त अर्जुनके प्रति अपने हृदयकी बात कहते-कहते भगवान् को तृप्ति नहीं हो रही है। कारण कि भगवान् के हृदयकी गोपनीय बात भक्तके सिवाय संसारमें और कोई सुननेवाला नहीं है। अतः भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही कृपापूर्वक दसवें अध्यायका विषय आरम्भ कर देते हैं।


भगवान्की पुनः श्रेष्ठ उपदेश प्रदान करनेकी प्रतिज्ञा एवं उसे सुननेके लिये अर्जुनसे अनुरोध ।

(श्लोक-१)

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥

उच्चारण की विधि - भूयः, एव, महाबाहो, शृणु, मे, परमम्, वचः, यत्, ते, अहम्, प्रीयमाणाय, वक्ष्यामि, हितकाम्यया ॥ १॥

शब्दार्थ - महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो !, भूयः अर्थात् फिर, एव अर्थात् भी, मे अर्थात् मेरे, परमम् अर्थात् परम (रहस्य और प्रभावयुक्त), वचः अर्थात् वचनको, शृणु अर्थात् सुन, यत् अर्थात् जिसे, अहम् अर्थात् मैं, ते अर्थात् तुझ, प्रीयमाणाय अर्थात् अतिशय प्रेम रखनेवालेके लिये, हितकाम्यया अर्थात् हितकी इच्छासे, वक्ष्यामि अर्थात् कहूँगा।

अर्थ - श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचनको सुन, जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवालेके लिये हितकी इच्छासे कहूँगा ॥ १॥


व्याख्या'भूय एव'- भगवान् की विभूतियोंको तत्त्वसे जाननेपर भगवान् में भक्ति होती है, प्रेम होता है। इसलिये कृपावश होकर भगवान् ने सातवें अध्यायमें (आठवें श्लोकसे बारहवें श्लोकतक) कारणरूपसे सत्रह विभूतियाँ और नवें अध्यायमें (सोलहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक) कार्य-कारणरूपसे सैंतीस विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बतानेके लिये तथा (गीता-आठवें अध्यायके चौदहवें एवं नवें अध्यायके बाईसवें तथा चौंतीसवें श्लोकमें कही हुई) भक्तिका और भी विशेषतासे वर्णन करनेके लिये भगवान् 'भूय एव' कहते हैं।

१-इस (दसवें) अध्यायमें भगवान् ने चौथेसे छठे श्लोकतक अपनी पैंतालीस विभूतियाँ बतायी हैं।

'शृणु मे परमं वचः' - भगवान् के मनमें अपनी महिमाकी बात, अपने हृदयकी बात, अपने प्रभावकी बात कहनेकी विशेष आ रही है।

अथ दशमोऽध्यायः

२-भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी तरफसे उन भक्तोंपर कृपा करके उनको ज्ञान दे देता हूँ- 'तेषामेवानुकम्पार्थम्' (गीता १०। ११) - यह भगवान् का परम वचन है।

इसलिये वे अर्जुनसे कहते हैं कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन'।


दूसरा भाव यह है कि भगवान् जहाँ-जहाँ अर्जुनको अपनी विशेष महत्ता, प्रभाव, ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात् अपने-आपको खोल करके बताते हैं, वहाँ-वहाँ वे परम वचन, रहस्य आदि शब्दोंका प्रयोग करते हैं; जैसे - चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'रहस्यं ह्येतदुत्तमम्' पदोंसे बताते हैं कि जिसने सूर्यको उपदेश दिया था, वही मैं तेरे रथके घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'शृणु मे परमं वचः' पदोंसे यह परम वचन कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मोंका निर्णय करनेकी झंझटको छोड़कर एक मेरी शरणमें आ जा; मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर (१८। ६६)। यहाँ 'शृणु मे परमं वचः' पदोंसे भगवान् का आशय है कि प्राणियोंके अनेक प्रकारके भाव मेरेसे ही पैदा होते हैं और मेरेमें ही भक्तिभाव रखनेवाले सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु- ये सभी मेरे मनसे पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूलमें मैं ही हूँ।

जैसे आगे तेरहवें अध्यायमें ज्ञानकी बात कहते हुए भी चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने फिर ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है, ऐसे ही सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञान-विज्ञानकी बात कहते हुए भी दसवें अध्यायके आरम्भमें फिर उसी विषयको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने 'परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा और यहाँ (दसवें अध्यायके आरम्भमें) 'शृणु मे परमं वचः' कहा। इनका तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें समझकी, विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है; अतः साधक वचनोंको सुन करके विचारपूर्वक तत्त्वको समझ लेता है। इसलिये वहाँ 'ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा है। भक्तिमार्गमें श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता रहती है; अतः साधक वचनोंको सुन करके श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मान लेता है। इसलिये यहाँ 'परमं वचः' कहा गया है।


'यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया'- सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हित-भावना हो तो वक्ताके वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है। इससे श्रोताकी भगवान् में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है, भक्ति हो जाती है, प्रेम हो जाता है।

यहाँ 'हितकाम्यया' पदसे एक शंका हो सकती है कि भगवान् ने गीतामें जगह-जगह कामनाका निषेध किया है, फिर वे स्वयं अपनेमें कामना क्यों रखते हैं? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें अपने लिये भोग, सुख, आराम आदि चाहना ही 'कामना' है। दूसरोंके हितकी कामना 'कामना' है ही नहीं। दूसरोंके हितकी कामना तो त्याग है और अपनी कामनाको मिटानेका मुख्य साधन है। इसलिये भगवान् सबको धारण करनेके लिये आदर्शरूपसे कह रहे हैं कि जैसे मैं हितकी कामनासे कहता हूँ, ऐसे ही मनुष्यमात्रको चाहिये कि वह प्राणिमात्रके हितकी कामनासे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटनेपर मेरी प्राप्ति सुगमतासे हो जायगी। प्राणिमात्रके हितकी कामना रखनेवालेको मेरे सगुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है - 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता १२। ४), और निर्गुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है - 'लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ...... सर्वभूतहिते रताः' (गीता ५।२५)।


परिशिष्ट भाव - अर्जुन युद्धक्षेत्रमें आकर भी विजयकी कामना न रखकर अपना कल्याण चाहते हैं, इसलिये उनके लिये 'महाबाहो' सम्बोधन आया है। यह सम्बोधन अर्जुनकी श्रेष्ठताका, उपदेश धारण करनेकी सामर्थ्यका, अधिकारका सूचक है।

'परमं वचः' जीवमात्रका कल्याण करनेवाले होनेसे भगवान् के वचन 'परम' अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। मात्र जीवोंका कल्याण करनेवाली होनेसे ही गीता विश्वमात्रको प्रिय, विश्ववन्द्य है।

'वक्ष्यामि हितकाम्यया'- अर्जुन जीवमात्रके प्रतिनिधि हैं और अपना हित ही चाहते हैं *।

  • 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे'

(गीता २।७)

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥

(गीता ३।२)

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥

(गीता ५।१)

अतः भगवान् उनके अर्थात् जीवमात्रके हितके उद्देश्यसे परम वचन कहते हैं। कल्याणके सिवाय जीवका अन्य कोई हित है ही नहीं। भगवान् के वचन भी कल्याण करनेवाले हैं और उनका उद्देश्य भी कल्याण करनेका है, इसलिये भगवान् की वाणीमें जीवका विशेष कल्याण (परमहित) भरा हुआ है। जीवका जितना हित भगवान् कर सकते हैं, उतना दूसरा कोई कर सकता ही नहीं -उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥

(मानस, किष्किंधा० १२।१)


दूसरोंकी वाणीमें तो मतभेद रहता है, पर भगवान् की वाणी सर्वसम्मत है। भगवान् योगमें स्थित होकर गीता कह रहे हैं; अतः उनके वचन विशेष कल्याण करनेवाले हैं।

१-न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः । परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ॥

(महाभारत, आश्व० १६ । १२-१३)

'(भगवान् अर्जुनसे बोले) वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है। उस समय योगयुक्त होकर ही मैंने परमात्मतत्त्वका वर्णन किया था।'

भगवान् का योगमें स्थित होना क्या है? भगवान् सामान्यरूपसे मात्र प्राणियोंके परम सुहृद् हैं, पर जब कोई व्याकुल होकर उनकी शरणमें आता है, तब भगवान् के हृदयमें उसके हितके विशेष भाव प्रकट होते हैं- यही भगवान् का योगमें स्थित होना है; जैसे- बछड़ेके सामने आते ही गायके शरीरमें रहनेवाला दूध उसके थनोंमें आ जाता है !


२-ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ।

(श्रीमद्भा० १।१।८; १०। १३। ३)

'गुरुजन' अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त-से-गुप्त बात भी बतला दिया करते हैं।'

गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥

(मानस, बाल० ११०।१)

'यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया' पदोंसे भगवान् कहते हैं कि तुम्हारे भीतर मेरे प्रति प्रेमका भाव है और मेरे भीतर तुम्हारे प्रति हितका भाव है, इसलिये मैं वह विज्ञानसहित ज्ञान पुनः कहूँगा, जो मैंने सातवें और नवें अध्यायमें कहा है। इससे सिद्ध होता है कि सातवाँ, नवाँ और दसवाँ-तीनों अध्यायोंमें भगवान् ने प्राणिमात्रके हितकी कामनासे अपने हृदयकी बात कही है !

सम्बन्ध-परम वचनके विषयमें, जिसे मैं आगे कहूँगा, मेरे सिवाय पूरा-पूरा बतानेवाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है ? इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।"


Today’s Question (with Answer + Explanation)

प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण किस उद्देश्य से अर्जुन को परम वाणी सुनाने जा रहे हैं?

A. अर्जुन को युद्ध से रोकने के लिए

B. अर्जुन के मोह को बढ़ाने के लिए

C. अर्जुन के कल्याण और प्रेमवश

D. केवल ज्ञान बढ़ाने के लिए


सही उत्तर:

C. अर्जुन के कल्याण और प्रेमवश

📖 क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा — "प्रिय अर्जुन, मैं तुम्हारे हित के लिए कह रहा हूँ।" यह श्लोक हमें सिखाता है कि गीता का ज्ञान दयाभाव और प्रेमपूर्वक दिया गया है — कोई जोर-जबरदस्ती नहीं।


🌟 Today’s Learning (Key Takeaways)

यह अध्याय है “विभूतियोग” — जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने विशेष दिव्य स्वरूप, गुण, शक्तियों और महिमा का वर्णन करेंगे।

🔑 इस श्लोक से हमें यह सीखने को मिलता है:

  1. ईश्वर का ज्ञान प्रेम और हित से मिलता है – भगवान अर्जुन से प्रेम करते हैं, इसलिए यह ज्ञान दे रहे हैं।
  2. सच्चा शिक्षक वही होता है जो शिष्य के हित के लिए बोले।
  3. ‘परमं वचः’ – यानी यह सामान्य ज्ञान नहीं, परम ज्ञान है।

💡 यदि हम भी श्रद्धा से गीता सुनें और आत्मा से ग्रहण करें, तो यह हमारे जीवन की दिशा ही बदल सकती है।


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