गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 2 - 🕉️ देवता और ऋषि भी नहीं जानते भगवान को? ✨
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार अध्याय 10 श्लोक 2 - 🕉️ देवता और ऋषि भी नहीं जानते भगवान को? ✨
🕉️ 🙏 जय श्रीकृष्ण मित्रों! स्वागत है आपका “गीता का सार - जगत का सार” में।
अगर आप गीता का सच्चा ज्ञान जीवन में पाना चाहते हैं, तो आज का श्लोक आपके सोचने के नजरिए को बदल देगा।
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कृपया इस दिव्य ज्ञान को अधूरा न सुनें, क्योंकि इससे गीता जी का अनादर हो सकता है।यदि आपके पास समय कम है, तो आप शुरुआत में ही छोड़ सकते हैं। हम या भगवान बुरा नहीं मानेंगे।
🔁 पिछले श्लोक Chapter 10, Shlok 1में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था — "प्रिय अर्जुन! मैं तुम्हारे हित के लिए, प्रेमपूर्वक, परम वाणी कह रहा हूँ।" यह इस अध्याय की शुरुआत थी — जिसमें भगवान अपनी दिव्य विभूतियों की चर्चा करने जा रहे हैं।
📚 आज का श्लोक — Chapter 10, Shlok 2 श्लोक: "न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥"
➡️ भावार्थ: “मुझे देवता और महान ऋषि भी नहीं जानते, क्योंकि मैं ही देवताओं और महर्षियों का सम्पूर्ण आदि कारण हूँ।”
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
योग' शब्दवाच्य अपने प्रभावका वर्णन करके उसके जाननेका फल बतलाना। (श्लोक-२)
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
उच्चारण की विधि - न, मे, विदुः, सुरगणाः, प्रभवम्, न, महर्षयः, अहम्, आदिः, हि, देवानाम्, महर्षीणाम्, च, सर्वशः ॥ २ ॥
शब्दार्थ - मे अर्थात् मेरी, प्रभवम् अर्थात् उत्पत्तिको अर्थात् लीलासे प्रकट होनेको, न अर्थात् न, सुरगणाः अर्थात् देवतालोग (जानते हैं और), न अर्थात् न, महर्षयः अर्थात् महर्षिजन (ही), विदुः अर्थात् जानते हैं, हि अर्थात् क्योंकि, अहम् अर्थात् मैं, सर्वशः अर्थात् सब प्रकारसे, देवानाम् अर्थात् देवताओंका, च अर्थात् और, महर्षीणाम् अर्थात् महर्षियोंका (भी), आदिः अर्थात् आदि कारण हूँ।
अर्थ - मेरी उत्पत्तिको अर्थात् लीलासे प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदिकारण हूँ ॥ २ ॥
व्याख्या 'न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः'- यद्यपि देवताओंके शरीर, बुद्धि, लोक, सामग्री आदि सब दिव्य हैं, तथापि वे मेरे प्रकट होनेको नहीं जानते। तात्पर्य है कि मेरा जो विश्वरूपसे प्रकट होना है, मत्स्य, कच्छप आदि अवताररूपसे प्रकट होना है, सृष्टिमें क्रिया, भाव और विभूतिरूपसे प्रकट होना है, ऐसे मेरे प्रकट होनेके उद्देश्यको, लक्ष्यको, हेतुओंको देवता भी पूरा-पूरा नहीं जानते। मेरे प्रकट होनेको पूरा-पूरा जानना तो दूर रहा, उनको तो मेरे दर्शन भी बड़ी कठिनतासे होते हैं। इसलिये वे मेरे दर्शनके लिये हरदम लालायित रहते हैं (गीता - ग्यारहवें अध्यायके बावनवें श्लोकमें)।
ऐसे ही जिन महर्षियोंने अनेक ऋचाओंको, मन्त्रोंको, विद्याओंको, विलक्षण-विलक्षण शक्तियोंको प्रकट किया है, जो संसारसे ऊँचे उठे हुए हैं, जो दिव्य अनुभवसे युक्त हैं, जिनके लिये कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहा है, ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महर्षि लोग भी मेरे प्रकट होनेको अर्थात् मेरे अवतारोंको, अनेक प्रकारकी लीलाओंको, मेरे महत्त्वको पूरा-पूरा नहीं जानते।
यहाँ भगवान् ने देवता और महर्षि - इन दोनोंका नाम लिया है। इसमें ऐसा मालूम देता है कि ऊँचे पदकी दृष्टिसे देवताका नाम और ज्ञानकी दृष्टिसे महर्षिका नाम लिया गया है। इन दोनोंका मेरे प्रकट होनेको न जाननेमें कारण यह है कि मैं देवताओं और महर्षियोंका सब प्रकारसे आदि हूँ- 'अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ।'
उनमें जो कुछ बुद्धि है, शक्ति है, सामर्थ्य है, पद है, प्रभाव है, महत्ता है, वह सब उन्होंने मेरेसे ही प्राप्त की है। अतः मेरेसे प्राप्त किये हुए प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य आदिसे वे मेरेको पूरा कैसे जान सकते हैं? अर्थात् नहीं जान सकते। जैसे बालक जिस माँसे पैदा हुआ है, उस माँके विवाहको और अपने शरीरके पैदा होनेको नहीं जानता, ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे ही प्रकट हुए हैं; अतः वे मेरे प्रकट होनेको और अपने कारणको नहीं जानते। कार्य अपने कारणमें लीन तो हो सकता है, पर उसको जान नहीं सकता। ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे उत्पन्न होनेसे, मेरा कार्य होनेसे कारणरूप मेरेको नहीं जान सकते, प्रत्युत मेरेमें लीन हो सकते हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि देवता और महर्षि भगवान् के आदिको, अन्तको और वर्तमानकी इयत्ताको अर्थात् भगवान् ऐसे ही हैं, इतने ही अवतार लेते हैं- इस माप-तौलको नहीं जान सकते। कारण कि इन देवताओं और महर्षियोंके प्रकट होनेसे पहले भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही थे और उनके लीन होनेपर भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे। अतः जिनके शरीरोंका आदि और अन्त होता रहता है, वे देवता और महर्षि अनादि-अनन्तको अर्थात् असीम परमात्माको अपनी सीमित बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य आदिके द्वारा कैसे जान सकते हैं? असीमको अपनी सीमित बुद्धिके अन्तर्गत कैसे ला सकते हैं? अर्थात् नहीं ला सकते।
इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें अर्जुनने भी भगवान् से कहा है कि आपको देवता और दानव नहीं जानते; क्योंकि देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी और दानवोंके पास माया-शक्तिकी अधिकता है। तात्पर्य है कि भोगोंमें लगे रहनेसे देवताओंको (मेरेको जाननेके लिये) समय ही नहीं मिलता और माया-शक्तिसे छल-कपट करनेसे दानव मेरेको जान ही नहीं सकते।
परिशिष्ट भाव - सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान् ने 'मनुष्याणां सहस्रेषु०' पदोंसे जो बात कही थी, वह यहाँ 'न मे विदुः ०' पदोंसे कहते हैं। वे भगवान् को क्यों नहीं जानते- इसका हेतु बताते हैं कि मैं सब तरहसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ। सातवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने कहा है कि भूत, भविष्य और वर्तमानके सब प्राणियोंको मैं जानता हूँ, पर मेरेको कोई नहीं जानता। इसलिये अर्जुनने भी आगे चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोकोंमें कहा है क आपको न देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं, प्रत्युत आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।
इस श्लोकमें भगवान् ने 'राजगुह्य' बात कही है। भगवान् विद्या, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य आदिसे जाननेमें नहीं आते, प्रत्युत जिज्ञासुके श्रद्धा-विश्वाससे एवं भगवत्कृपासे ही जाननेमें आते हैं।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें कहा गया कि देवता और महर्षिलोग भी भगवान् के प्रकट होनेको सर्वथा नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य भगवान् को कैसे जानेगा और उसका कल्याण कैसे होगा? इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
🌟 आज की सीख (Today’s Learning) भगवान की सत्ता को समझना आसान नहीं – केवल तर्क से नहीं, श्रद्धा से जाना जा सकता है।
देवता और ऋषि भी सीमित हैं — जबकि भगवान परम कारण हैं।
हमें खुद को “सब कुछ जानने वाला” नहीं मानना चाहिए — विनम्रता और भक्ति ही हमें सत्य तक ले जाती है।
💡 जब देवता और ऋषि नहीं समझ सके, तो हम भी तभी समझ सकते हैं जब भीतर श्रद्धा हो और अहंकार ना हो।
❓ आज का सवाल (Question with Answer + Explanation)
प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण किस बात को स्पष्ट करते हैं इस श्लोक में?
A. देवताओं के सामर्थ्य को
B. अपनी दिव्य शक्ति को
C. ऋषियों की सीमितता को
D. देवता और महर्षियों के अज्ञान को
✅ सही उत्तर: D. देवता और महर्षियों के अज्ञान को
📖 व्याख्या: भगवान बताते हैं कि उन्हें जान पाना केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि कृपा और भक्ति से ही संभव है। देवता और ऋषि भी उन्हें पूर्णतः नहीं जानते — इसका कारण है कि भगवान स्वयं सभी का मूल कारण हैं।
🔮कल हम Chapter 10, Shlok 3 जानेंगे कि जो व्यक्ति भगवान को अजनमा और सर्वाधार मानता है — वह सब कुछ जानने वाला होता है। बहुत शक्तिशाली श्लोक है — आध्यात्मिक समझ का शिखर!
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🙏 आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी कभी भगवान को जानने की कोशिश में उलझे हैं?
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