गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 3 - 🕉️ जो भगवान को अजनमा और सर्वाधार मानता है, वही जानता है!✨

 


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 10 श्लोक 3 - 🕉️ देवता और ऋषि भी नहीं जानते भगवान को?


🕉️🙏 जय श्रीकृष्ण!

स्वागत है आपका “गीता का सार – जगत का सार” में।

रुकिए! एक सवाल है आपसे — क्या वाकई आप इस दिव्य ज्ञान को अधूरा छोड़ना चाहेंगे?

सोचिए ज़रा… जब किसी को प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता है, तो क्या वह यूँ ही जाने दिया जाता है?

अगर आप अब तक सुन रहे हैं, तो समझ लीजिए — ये कोई संयोग नहीं, ये प्रभु की विशेष कृपा है।

आपके कानों तक जो शब्द पहुँच रहे हैं, वो सिर्फ आवाज़ नहीं… वो उस परम शक्ति का संदेश है, जो आपको कुछ कहना चाहती है।

हम तो बस एक ज़रिया हैं — असली संदेशवाहक तो वही हैं।

तो बताइए… क्या आप इस अनमोल अवसर को अधूरा छोड़ना चाहेंगे या अंत तक साथ चलेंगे?


🔁 पिछले श्लोक में भगवान ने बताया कि "देवता और महर्षि भी उन्हें पूरी तरह नहीं जानते।" क्योंकि वह सभी के आदि कारण हैं।

इससे हमें ये सीख मिली कि ज्ञान का घमंड नहीं, बल्कि भक्ति और श्रद्धा ही सही रास्ता है।


📜 श्लोक: "यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥"



➡️ भावार्थ: "जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों का ईश्वर जानता है, वह मोह से रहित होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।"


श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥


"(श्लोक-३)

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असम्मूढः स मत्र्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

उच्चारण की विधि - यः, माम्, अजम्, अनादिम्, च, वेत्ति, लोकमहेश्वरम्, असम्मूढः, सः, मर्येषु, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३॥

शब्दार्थ - यः अर्थात् जो, माम् अर्थात् मुझको, अजम् अर्थात् अजन्मा अर्थात् वास्तवमें जन्मरहित, अनादिम् अर्थात् अनादि *, च अर्थात् और, लोकमहेश्वरम् अर्थात् लोकोंका महान् ईश्वर, वेत्ति अर्थात् तत्त्वसे जानता है, सः अर्थात् वह, मर्येषु अर्थात् मनुष्योंमें, असम्मूढः अर्थात् ज्ञानवान् पुरुष, सर्वपापैः अर्थात् सम्पूर्ण पापोंसे, प्रमुच्यते अर्थात् मुक्त हो जाता है।

अर्थ - जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तवमें जन्मरहित, अनादि * और लोकोंका महान् ईश्वर तत्त्वसे जानता है, वह मनुष्योंमें ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३॥


व्याख्या'यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्' - पीछेके श्लोकमें भगवान् के प्रकट होनेको जाननेका विषय नहीं बताया है। इस विषयको तो मनुष्य भी नहीं जानता, पर जितना जाननेसे मनुष्य अपना कल्याण कर ले, उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात् मानना यह है कि भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात् यह जो काल कहा जाता है, जिसमें आदि-अनादि शब्दोंका प्रयोग होता है, भगवान् उस कालके भी काल हैं। उन कालातीत भगवान् में कालका भी आदि और अन्त हो जाता है। भगवान् सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर हैं अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी और पातालरूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकीमें जितने प्राणी हैं और उन प्राणियोंपर शासन करनेवाले (अलग-अलग अधिकार-प्राप्त) जितने ईश्वर (मालिक) हैं, उन सब ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर भगवान् हैं। इस प्रकार जाननेसे अर्थात् श्रद्धा-विश्वासपूर्वक दृढ़तासे माननेसे मनुष्यको भगवान् के अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर होनेमें कभी किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता।


'असम्मूढः स मर्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते'- भगवान् को अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर जाननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त कैसे होगा ? भगवान् जन्मरहित हैं, नाशरहित हैं अर्थात् उनमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। वे अजन्मा तथा अविनाशी रहते हुए ही सबके महान् ईश्वर हैं। वे सब देशमें रहनेके नाते यहाँ भी हैं, सब समयमें होनेके नाते अभी भी हैं, सबके होनेके नाते मेरे भी हैं और सबके मालिक होनेके नाते मेरे अकेलेके भी मालिक हैं- इस प्रकार दृढ़तासे मान ले। इसमें सन्देहकी गन्ध भी न रहे। साथ-ही-साथ, यह जो क्षणभंगुर संसार है, जिसका प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और जिसको जिस क्षणमें जिस रूपमें देखा है, उसको दूसरे क्षणमें उस रूपमें दुबारा कोई भी देख नहीं सकता; क्योंकि वह दूसरे क्षणमें वैसा रहता ही नहीं - इस प्रकार संसारको यथार्थरूपसे जान ले। जिसने अपनेसहित सारे संसारके मालिक भगवान् को दृढ़तासे मान लिया है और संसारकी क्षणभंगुरताको तत्त्वसे ठीक जान लिया है, उसका संसारमें 'मैं' और 'मेरा' पन रह ही नहीं सकता; प्रत्युत एकमात्र भगवान् में ही अपनापन हो जाता है। तो फिर वह पापोंसे मुक्त नहीं होगा, तो और क्या होगा ? ऐसा मूढ़तारहित मनुष्य ही भगवान् को तत्त्वसे अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर जानता है और वही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उसके क्रियमाण, संचित आदि सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं। मनुष्यको इस वास्तविकताका अनुभव करनेकी आवश्यकता है, केवल तोतेकी तरह सीखनेकी आवश्यकता नहीं। तोतेकी तरह सीखा हुआ ज्ञान पूरा काम नहीं देता।


असम्मूढ़ता क्या है ? संसार (शरीर) किसीके भी साथ कभी रह नहीं सकता तथा कोई भी संसारके साथ कभी रह नहीं सकता और परमात्मा किसीसे भी कभी अलग हो नहीं सकते और कोई भी परमात्मासे कभी अलग हो नहीं सकता-यह वास्तविकता है। इस वास्तविकताको न जानना ही सम्मूढ़ता है और इसको यथार्थ जानना ही असम्मूढ़ता है। यह असम्मूढ़ता जिसमें रहती है, वह मनुष्य असम्मूढ़ कहा जाता है। ऐसा असम्मूढ़ पुरुष मेरे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकाररूपको तत्त्वसे जान लेता है, तो उसे मेरी लीला, रहस्य, प्रभाव, ऐश्वर्य आदिमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता।


परिशिष्ट भाव - नवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भगवान् ने व्यतिरेकरीतिसे कहा कि जो मेरेको नहीं जानता, उसका पतन हो जाता है और यहाँ अन्वयरीतिसे कहते हैं कि जो मेरेको जानता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।

यहाँ 'वेत्ति' का अर्थ है- दृढ़तापूर्वक, सन्देहरहित स्वीकार कर लेना; क्योंकि भगवान् को इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जान नहीं सकते (गीता - दसवें अध्यायका दूसरा श्लोक)। अतः भगवान् जाननेका विषय नहीं हैं, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय हैं। जाननेका विषय खुद प्रकृति भी नहीं है; फिर प्रकृतिसे अतीत भगवान् जाननेका विषय कैसे हो सकते हैं। अनुभव करनेका तात्पर्य है- अपनेको भगवान् में लीन कर देना, भगवान् से अभिन्न हो जाना। भगवान् से अभिन्न होकर ही भगवान् को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें अभिन्न ही हैं। (इसी तरह संसारसे अलग होकर ही संसारको जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें अलग ही हैं।)


महर्षिगण भगवान् के आदिको तो नहीं जान सकते, पर वे भगवान् को अज-अनादि तो जानते ही हैं। भगवान् का अंश होनेसे जीव भी अज-अनादि है। अतः वह भगवान् को अज-अनादि जानेगा तो अपनेको भी वैसा ही (अज-अनादि) जानेगा; क्योंकि जीव भगवान् से अभिन्न होकर ही भगवान् को जानता है। अपनेको अज-अनादि जाननेपर वह मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे ? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहलेसे है। 'सर्वपापैः प्रमुच्यते' का तात्पर्य है - गुणोंके संगसे रहित होना। गुणोंका संग रहते हुए मनुष्य पापोंसे मुक्त नहीं हो सकता; क्योंकि गुणोंका संग पापोंका मूल कारण है।

आगे चौथेसे छठे श्लोकतक असम्मूढ़ताका ही विवेचन हुआ है, जिसमें भगवान् ने अपनेको सबका 'आदि' बताया है। भगवान् स्वयं 'अनादि' हैं और भावोंके तथा महर्षियोंके 'आदि' हैं।

सम्बन्ध-पहले श्लोकमें भगवान् ने जिस परम वचनको सुननेकी आज्ञा दी थी, उसको अब आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।"


🌟 आज की सीख (Today's Learning)

  1. भगवान का स्वरूप: वह जन्म नहीं लेते, बल्कि स्वयं प्रकट होते हैं — _अजनमा और अनादि_।
  2. सच्चा जानकार वही है, जो उन्हें सर्वाधार और लोकमहेश्वर माने।
  3. जो व्यक्ति इस सत्य को भक्ति सहित समझता है — वह सारे पापों से मुक्त हो सकता है।
  4. गीता का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि मोक्ष की ओर ले जाना है

👉 तो क्या आप भी मोह से मुक्त होकर प्रभु को जानना चाहते हैं?


आज का सवाल (Interactive Q&A Style)

प्रश्न: श्रीमद्भगवद्गीता 10.3 के अनुसार, कौन व्यक्ति प्रभु को वास्तव में जानता है?

A. जो शास्त्र पढ़ता है

B. जो ध्यान करता है

C. जो उन्हें अजन्मा और सर्वाधार मानता है

D. जो यज्ञ करता है


सही उत्तर: C. जो उन्हें अजन्मा और सर्वाधार मानता है

📖 स्पष्टीकरण: भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है — जो मुझे अजन्मा और लोकों का स्वामी मानता है, वह मोह से रहित होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।


🔮कल हम जानेंगे — भगवान की दिव्य विभूतियों और उन गुणों के बारे में जो प्रभु से उत्पन्न होते हैं — जैसे बुद्धि, स्मृति, क्षमा, शक्ति, अहिंसा आदि।

बहुत ही व्यवहारिक और गहराई से जुड़ा हुआ ज्ञान आने वाला है!


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क्या आपने कभी गीता से किसी समस्या का समाधान पाया है?

कहते हैं कि अगर आप किसी समस्या से गुजर रहे हैं, तो श्रीमद्भगवद्गीता का चमत्कारिक प्रभाव यही है कि प्रभुजी का नाम लेकर कोई भी पृष्ठ खोलें, और उसके दाहिने पृष्ठ पर जो पहली पंक्ति होगी, वही आपकी समस्या का समाधान होगी।

क्या आपने कभी इसे आजमाया है?

🤔 अगर हाँ, तो हमें बताएं कि आज आपने कौन सा श्लोक पढ़ा और उससे क्या सीखा?

📢 कमेंट करें और अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें! हो सकता है कि आपका अनुभव किसी और के लिए मार्गदर्शन बन जाए! 🙏

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