गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 26 - भगवान को क्या अर्पण करें?

 


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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 26 - भगवान को क्या अर्पण करें?


गीता का ज्ञान एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन के हर पहलू को आलोकित करता है। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह ज्ञान दिया था — और उस दिव्य संवाद को सुनने का सौभाग्य केवल चार आत्माओं को मिला: अर्जुन, हनुमान जी, संजय और धृतराष्ट्र।

पर हैरानी की बात है — एक ही ज्ञान सुनकर भी सबकी समझ अलग थी।

आज अगर आप ये श्लोक सुन रहे हैं — तो न केवल ये आपका सौभाग्य है, बल्कि ईश्वर की ओर से एक संकेत भी है — कि अब समय है जीवन को सही दिशा देने का।

और आज के श्लोक में तो श्रीकृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि मैं एक पत्ता, फूल, फल या जल भी स्वीकार करता हूँ — अगर वह श्रद्धा से अर्पित किया जाए। तो चलिए जानते हैं — सच्ची भक्ति का मर्म क्या है? और आखिर ईश्वर को क्या अर्पित करना चाहिए? वीडियो के अंत में मिलेगा — कल के सवाल का उत्तर, आज की जीवन समस्या का समाधान, और एक नया सवाल — जिसका जवाब कल मिलेगा! तो अंत तक जुड़े रहें!"


"कल हमने जाना कि — 'जिस देवता की पूजा की जाती है, उसी लोक में साधक जाते हैं।' यानि आपकी भक्ति की दिशा ही आपकी मंज़िल तय करती है।"


श्लोक: पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥



भावार्थ: "जो भक्त मुझे प्रेमपूर्वक पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल और जल अर्पित करता है — उसे मैं स्वीकार करता हूँ।"

संवादात्मक प्रस्तुति: "क्या आपने कभी सोचा है — भगवान को प्रसन्न करने के लिए क्या ज़रूरी है?

क्या मंदिर में 1 किलो मिठाई या 1008 दीपक ही भगवान को खुश कर सकते हैं?

श्रीकृष्ण कहते हैं — श्रद्धा से अर्पित किया गया एक पत्ता भी मुझे स्वीकार्य है। यह श्लोक हमें भक्ति की सादगी और गहराई सिखाता है।


श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥


भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र-पुष्पादिको खानेके लिये भगवान्‌की प्रतिज्ञा । (श्लोक-२६)

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥

उच्चारण की विधि - पत्रम्, पुष्पम्, फलम्, तोयम्, यः, मे, भक्त्या, प्रयच्छति, तत्, अहम्, भक्त्युपहृतम्, अश्नामि, प्रयतात्मनः ॥ २६ ॥

शब्दार्थ - यः अर्थात् जो (कोई भक्त), मे अर्थात् मेरे लिये, भक्त्या अर्थात् प्रेमसे, पत्रम् अर्थात् पत्र, पुष्पम् अर्थात् पुष्प, फलम् अर्थात् फल, तोयम् अर्थात् जल आदि, प्रयच्छति अर्थात् अर्पण करता है, प्रयतात्मनः अर्थात् (उस) शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका, भक्त्युपहृतम् अर्थात् प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ, तत् अर्थात् वह (पत्र-पुष्पादि), अहम् अर्थात् मैं (सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित), अश्नामि अर्थात् खाता हूँ।

अर्थ - जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ ॥ २६ ॥


व्याख्या [भगवान् की अपरा प्रकृतिके दो कार्य हैं-पदार्थ और क्रिया। इन दोनोंके साथ अपनी एकता मानकर ही यह जीव अपनेको उनका भोक्ता और मालिक मानने लग जाता है और इन पदार्थों और क्रियाओंके भोक्ता एवं मालिक भगवान् हैं- इस बातको वह भूल जाता है। इस भूलको दूर करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल आदि जो कुछ पदार्थ हैं और जो कुछ क्रियाएँ हैं (नवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक), उन सबको मेरे अर्पण कर दो, तो तुम सदा-सदाके लिये आफतसे छूट जाओगे (नवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)।

दूसरी बात, देवताओंके पूजनमें विधि-विधानकी, मन्त्रों आदिकी आवश्यकता है। परन्तु मेरा तो जीवके साथ स्वतः-स्वाभाविक अपनेपनका सम्बन्ध है, इसलिये मेरी प्राप्तिमें विधियोंकी मुख्यता नहीं है। जैसे, बालक माँकी गोदीमें जाय, तो उसके लिये किसी विधिकी जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपनके सम्बन्धसे ही माँकी गोदीमें जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्तिके लिये विधि, मन्त्र आदिकी आवश्यकता नहीं है, केवल अपनेपनके दृढ़ भावकी आवश्यकता है ।]


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति' - जो भक्त अनायास यथासाध्य प्राप्त पत्र (तुलसीदल आदि), पुष्प, फल, जल आदि भी प्रेमपूर्वक भगवान् के अर्पण करता है, तो भगवान् उसको खा जाते हैं। जैसे, द्रौपदीसे पत्ता लेकर भगवान् ने खा लिया और त्रिलोकीको तृप्त कर दिया। गजेन्द्रने सरोवरका एक पुष्प भगवान् के अर्पण करके नमस्कार किया, तो भगवान् ने गजेन्द्रका उद्धार कर दिया। शबरीके दिये हुए फल खाकर भगवान् इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भोजन करनेका अवसर आया, वहाँ शबरीके फलोंकी प्रशंसा करते रहे।

१- घर गुरु गृह प्रियसदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई। तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी, रुचि माधुरी न पाई ॥

(विनयपत्रिका १६४।४)

रन्तिदेवने अन्त्यजरूपसे आये भगवान् को जल पिलाया तो उनको भगवान् के साक्षात् दर्शन हो गये।

जब भक्तका भगवान् को देनेका भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब वह अपने-आपको भूल जाता है। भगवान् भी भक्तके प्रेममें इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने-आपको भूल जाते हैं।


प्रेमकी अधिकतामें भक्तको इसका खयाल नहीं रहता कि मैं क्या दे रहा हूँ, तो भगवान् को भी यह खयाल नहीं रहता कि मैं क्या खा रहा हूँ! जैसे, विदुरानी प्रेमके आवेशमें भगवान् को केलोंकी गिरी न देकर छिलके देती हैं, तो भगवान् उन छिलकोंको भी गिरीकी तरह ही खा लेते हैं !

२-'ततवेता' तिहुँ लोकमें, भोजन कियो अपार। इक शबरी इक विदुरघर, रुच पायो दो बार ॥

'तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ' - भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये गये उपहारको भगवान् स्वीकार ही नहीं कर लेते, प्रत्युत उसको खा लेते हैं- 'अश्नामि'। जैसे, पुष्प सूँघनेकी चीज है, पर भगवान् यह नहीं देखते कि यह खानेकी चीज है या नहीं; वे तो उसको खा ही लेते हैं। उसको आत्मसात् कर लेते हैं, अपनेमें मिला लेते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि भक्तका देनेका भाव रहता है, तो भगवान् का भी लेनेका भाव हो जाता है। भक्तमें भगवान् को खिलानेका भाव आता है, तो भगवान् को भी भूख लग जाती है !

'प्रयतात्मनः' का तात्पर्य है कि जिसका अन्तःकरण भगवान् में तल्लीन हो गया है, जो केवल भगवान् के ही परायण है, ऐसे प्रेमी भक्तके दिये हुए उपहार (भेंट) को भगवान् स्वयं खा लेते हैं।


यहाँ पत्र, पुष्प, फल और जल-इन चारोंका नाम लेनेका तात्पर्य यह है कि पत्र, पुष्प और फल- ये तीनों जलसे पैदा होनेके कारण जलके कार्य हैं और जल इनका कारण है। इसलिये ये पत्र, पुष्प आदि कार्य-कारणरूप मात्र पदार्थोंके उपलक्षण हैं; क्योंकि मात्र सृष्टि जलका कार्य है और जल उसका कारण है। अतः मात्र पदार्थोंको भगवान् के अर्पण करना चाहिये।

इस श्लोकमें 'भक्त्या' और 'भक्त्युपहृतम्' - इस रूपमें 'भक्ति' शब्द दो बार आया है। इनमें 'भक्त्या' पदसे भक्तका भक्तिपूर्वक देनेका भाव है और 'भक्त्युपहृतम्' पद भक्तिपूर्वक दी गयी वस्तुका विशेषण है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिपूर्वक देनेसे वह वस्तु भक्तिरूप, प्रेमरूप हो जाती है, तो भगवान् उसको आत्मसात् कर लेते हैं; अपनेमें मिला लेते हैं; क्योंकि वे प्रेमके भूखे हैं।

विशेष बात

इस श्लोकमें पदार्थोंकी मुख्यता नहीं है, प्रत्युत भक्तके भावकी मुख्यता है; क्योंकि भगवान् भावके भूखे हैं; पदार्थोंके नहीं। अतः अर्पण करनेवालेका भाव मुख्य (भक्तिपूर्ण) होना चाहिये। जैसे, कोई अत्यधिक गुरुभक्त शिष्य हो, तो गुरुकी सेवामें उसका जितना समय, वस्तु, क्रिया लगती है, उतना ही उसको आनन्द आता है, प्रसन्नता होती है।


इसी तरह पतिकी सेवामें समय, वस्तु, क्रिया लगनेपर पतिव्रता स्त्रीको बड़ा आनन्द आता है; क्योंकि पतिकी सेवामें ही उसको अपने जीवनकी और वस्तुकी सफलता दीखती है। ऐसे ही भक्तका भगवान् के प्रति प्रेम-भाव होता है, तो वस्तु चाहे छोटी हो या बड़ी हो, साधारण हो या कीमती हो, उसको भगवान् के अर्पण करनेमें भक्तको बड़ा आनन्द आता है। उसका भाव यह रहता है कि वस्तुमात्र भगवान् की ही है। मेरेको भगवान् ने सेवा-पूजाका अवसर दे दिया है - यह मेरेपर भगवान् की विशेष कृपा हो गयी है! इस कृपाको देख-देखकर वह प्रसन्न होता रहता है।

भावपूर्वक लगाये हुए भोगको भगवान् अवश्य स्वीकार करते हैं, चाहे हमें दीखे या न दीखे। इस विषयमें एक आचार्य कहते थे कि हमारे मन्दिरमें दीवालीसे होलीतक अर्थात् सरदीके दिनोंमें ठाकुरजीको पिस्ता, बादाम, अखरोट, काजू, चिरौंजी आदिका भोग लगाया जाता था; परन्तु जब यह बहुत मँहगा हो गया, तब हमने मूँगफलीका भोग लगाना शुरू कर दिया। एक दिन रातमें ठाकुरजीने स्वप्नमें कहा-'अरे यार ! तू मूँगफली ही खिलायेगा क्या?' उस दिनके बाद फिर मेवाका भोग लगाना शुरू कर दिया। उनको यह विश्वास हो गया कि जब ठाकुरजीको भोग लगाते हैं, तब वे उसे अवश्य स्वीकार करते हैं।


भोग लगानेपर जिन वस्तुओंको भगवान् स्वीकार कर लेते हैं, उन वस्तुओंमें विलक्षणता आ जाती है अर्थात् उन वस्तुओंमें स्वाद बढ़ जाता है, उनमें सुगन्ध आने लगती है; उनको खानेपर विलक्षण तृप्ति होती है, वे चीजें कितने ही दिनोंतक पड़ी रहनेपर भी खराब नहीं होतीं; आदि-आदि। परन्तु यह कसौटी नहीं है कि ऐसा होता ही है। कभी भक्तका ऐसा भाव बन जाय तो भोग लगायी हुई वस्तुओंमें ऐसी विलक्षणता आ जाती है-ऐसा हमने सन्तोंसे सुना है।

मनुष्य जब पदार्थोंकी आहुति देते हैं तो वह यज्ञ हो जाता है; चीजोंको दूसरोंको दे देते हैं तो वह दान कहलाता है, संयमपूर्वक अपने काममें न लेनेसे वह तप हो जाता है और भगवान् के अर्पण करनेसे भगवान् के साथ योग (सम्बन्ध) हो जाता है- ये सभी एक 'त्याग' के ही अलग-अलग नाम हैं।


परिशिष्ट भाव - देवताओंकी उपासनामें तो अनेक नियमोंका पालन करना पड़ता है (गीता - सातवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक); परन्तु भगवान् की उपासनामें कोई नियम नहीं है। भगवान् की उपासनामें प्रेमकी, अपनेपनकी प्रधानता है, विधिकी नहीं- 'भक्त्या प्रयच्छति', 'भक्त्युपहृतम्'।

जैसे भोला बालक जो कुछ हाथमें आये, उसको मुँहमें डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान् को जो भी अर्पण करते हैं, उसको भगवान् भी भोले बनकर खा लेते हैं-'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११); जैसे-विदुरानीने केलेका छिलका दिया तो भगवान् ने उसको ही खा लिया !

'भक्त्या प्रयच्छति' का तात्पर्य है कि भक्त वस्तुको प्रेमपूर्वक भगवान् के अर्पण करता है, किसी कामनासे नहीं। देवताओंकी उपासनामें तो वस्तुविशेषकी आवश्यकता होती है, पर भगवान् की उपासनामें वस्तुविशेषकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत प्रेमकी आवश्यकता है।

सम्बन्ध-संसारमात्रके दो रूप हैं- पदार्थ और क्रिया। इनमें आसक्ति होनेसे ये दोनों ही पतन करनेवाले होते हैं। अतः 'पदार्थ' अर्पण करनेकी बात पूर्वश्लोकमें कह दी और अब आगेके श्लोकमें 'क्रिया' अर्पण करनेकी बात कहते हैं।"


कल के सवाल का उत्तर और व्याख्या:

प्रश्न था: श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार समस्त यज्ञों का सच्चा भोक्ता कौन है?

सही उत्तर: C. श्रीकृष्ण

व्याख्या: श्लोक 9.24 में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं — "अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च" यानि "मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ।" यह हमें यह सिखाता है कि पूजा का फल अंततः भगवान तक ही पहुँचता है — चाहे माध्यम कोई भी हो।


आज का प्रश्न (उत्तर कल मिलेगा):

प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, वे भक्त से क्या स्वीकार करते हैं?

A. केवल सोने-चांदी की वस्तुएं B. पत्र, पुष्प, फल और जल C. यज्ञ और हवन सामग्री D. सिर्फ दान

अपना उत्तर कमेंट में ज़रूर लिखें सही उत्तर मिलेगा कल के एपिसोड में!


🧩 आज की जीवन समस्या और समाधान:

समस्या: "मेरे पास भगवान को चढ़ाने के लिए कुछ महंगा नहीं होता, इसलिए पूजा करते समय असहज महसूस होता है।"

समाधान (श्लोक आधारित): भगवान कहते हैं — "अगर तुम एक पत्ता, एक फूल या थोड़ा सा जल भी श्रद्धा से अर्पित करो — मैं उसे स्वीकार करता हूँ।"

तो जब भक्ति में भाव हो, तब वस्तु की कीमत नहीं, भावना की गहराई मायने रखती है। अपने **मन और श्रद्धा को अर्पित करें — यही सबसे बड़ा प्रसाद है।"


"कल का श्लोक जीवन की हर क्रिया को भक्ति में कैसे बदलें, यह सिखाता है। जो खाओ, जो करो, जो भोगो — सब कुछ मुझे अर्पित कर दो। कल मिलते हैं एक और गूढ़ रहस्य के साथ!"


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