गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 27 - हर कर्म को अर्पण करें भगवान को


 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 27 - हर कर्म को अर्पण करें भगवान को


गीता का ज्ञान एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन के हर पहलू को आलोकित करता है। कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह ज्ञान दिया था — लेकिन सिर्फ अर्जुन ही नहीं, हनुमान जी, संजय और धृतराष्ट्र ने भी इसे सुना। फर्क था समझ का। आज हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें इस दिव्य संवाद को समझने का अवसर मिल रहा है। और अंत में मिलेगा एक जीवन से जुड़ी समस्या का समाधान भी – तो अंत तक जुड़े रहें!"


पिछले श्लोक में भगवान ने कहा था कि यदि कोई मुझे प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, या जल भी अर्पित करता है, तो मैं उसे श्रद्धा सहित स्वीकार करता हूँ। इससे यह स्पष्ट हुआ कि श्रद्धा और भावना ही सबसे बड़ा साधन है।


📖 आज का श्लोक परिचय (अध्याय 9, श्लोक 27):



👉 श्लोक: "यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥"

👑 भावार्थ: हे अर्जुन! तुम जो कुछ भी करते हो, खाते हो, यज्ञ करते हो, दान देते हो या तपस्या करते हो — वह सब कुछ मुझे अर्पण करके करो।

🔍 तत्व बोध: ईश्वर से जुड़ने का यह सबसे सरल और सुंदर मार्ग है – हर कार्य को भगवान को समर्पित कर देना। इससे कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है और जीवन में निरंतर शुद्धता आती है।


"सर्वकर्म भगवदर्पण करनेकी आज्ञा एवं उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाना।

(श्लोक-२७)

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥

उच्चारण की विधि - यत्, करोषि, यत्, अश्नासि, यत्, जुहोषि, ददासि, यत्, यत्, तपस्यसि, कौन्तेय, तत्, कुरुष्व, मदर्पणम् ॥ २७ ॥

शब्दार्थ - कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन ! (तू), यत् अर्थात् जो (कर्म), करोषि अर्थात् करता है, यत् अर्थात् जो, अश्नासि अर्थात् खाता है, यत् अर्थात् जो, जुहोषि अर्थात् हवन करता है, यत् अर्थात् जो, ददासि अर्थात् दान देता है (और), यत् अर्थात् जो, तपस्यसि अर्थात् तप करता है, तत् अर्थात् वह सब, मदर्पणम् अर्थात् मेरे अर्पण, कुरुष्व अर्थात् कर।

अर्थ - हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ॥ २७ ॥


व्याख्या [भगवान् का यह नियम है कि जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं वैसे ही उनको आश्रय देता हूँ (गीता- चौथे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । जो भक्त अपनी वस्तु मेरे अर्पण करता है, मैं उसे अपनी वस्तु देता हूँ। भक्त तो सीमित ही वस्तु देता है, पर मैं अनन्त गुणा करके देता हूँ। परन्तु जो अपने-आपको ही मुझे दे देता है, मैं अपने-आपको उसे दे देता हूँ। वास्तवमें मैंने अपने-आपको संसारमात्रको दे रखा है (गीता - नवें अध्यायका चौथा श्लोक), और सबको सब कुछ करनेकी स्वतन्त्रता दे रखी है। अगर मनुष्य मेरी दी हुई स्वतन्त्रताको मेरे अर्पण कर देता है, तो मैं भी अपनी स्वतन्त्रताको उसके अर्पण कर देता हूँ अर्थात् मैं उसके अधीन हो जाता हूँ। इसलिये यहाँ भगवान् उस स्वतन्त्रताको अपने अर्पण करनेके लिये अर्जुनसे कहते हैं।]

'यत्करोषि' - यह पद ऐसा विलक्षण है कि इसमें शास्त्रीय, शारीरिक, व्यावहारिक, सामाजिक, पारमार्थिक आदि यावन्मात्र क्रियाएँ आ जाती हैं। भगवान् कहते हैं कि तू इन सम्पूर्ण क्रियाओंको मेरे अर्पण कर दे अर्थात् तू खुद ही मेरे अर्पित हो जा, तो तेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वतः मेरे अर्पित हो जायँगी।


अब आगे भगवान् उन्हीं क्रियाओंका विभाग करते हैं-

'यदश्नासि' इस पदके अन्तर्गत सम्पूर्ण शारीरिक क्रियाएँ लेनी चाहिये अर्थात् शरीरके लिये तू जो भोजन करता है, जल पीता है, कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करता है, ओषधि सेवन करता है, कपड़ा पहनता है, सरदी-गरमीसे शरीरकी रक्षा करता है, स्वास्थ्यके लिये समयानुसार सोता और जागता है, घूमता-फिरता है, शौच-स्नान करता है, आदि सभी क्रियाओंको तू मेरे अर्पण कर दे।

यह शारीरिक क्रियाओंका पहला विभाग है।

'यज्जुहोषि' - इस पदमें यज्ञ-सम्बन्धी सभी क्रियाएँ आ जाती हैं अर्थात् शाकल्य-सामग्री इकट्ठी करना, अग्नि प्रकट करना, मन्त्र पढ़ना, आहुति देना आदि सभी शास्त्रीय क्रियाएँ मेरे अर्पण कर दे।

'ददासि यत्' - तू जो कुछ देता है अर्थात् दूसरोंकी सेवा करता है, दूसरोंकी सहायता करता है, दूसरोंकी आवश्यकता-पूर्ति करता है, आदि जो कुछ शास्त्रीय क्रिया करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।


यत्तपस्यसि' - तू जो कुछ तप करता है अर्थात् विषयोंसे अपनी इन्द्रियोंका संयम करता है, अपने कर्तव्यका पालन करते हुए अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंको प्रसन्नतापूर्वक सहता है और तीर्थ, व्रत, भजन-ध्यान, जप-कीर्तन, श्रवण-मनन, समाधि आदि जो कुछ पारमार्थिक क्रिया करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे। उपर्युक्त तीनों पद शास्त्रीय और पारमार्थिक क्रियाओंका दूसरा विभाग है।

'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' - यहाँ भगवान् ने परस्मैपदी 'कुरु' क्रियापद न देकर आत्मनेपदी 'कुरुष्व' क्रियापद दिया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तू सब कुछ मेरे अर्पण कर देगा, तो मेरी कमीकी पूर्ति हो जायगी- यह बात नहीं है; किन्तु सब कुछ मेरे अर्पण करनेपर तेरे पास कुछ नहीं रहेगा अर्थात् तेरा 'मैं' और 'मेरा' पन सब खत्म हो जायगा, जो कि बन्धनकारक है। सब कुछ मेरे अर्पण करनेके फलस्वरूप तेरेको पूर्णताकी प्राप्ति हो जायगी अर्थात् जिस लाभसे बढ़कर दूसरा कोई लाभसम्भव ही नहीं है और जिस लाभमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता अर्थात् जहाँ दुःखोंके संयोगका ही अत्यन्त वियोग है (गीता-छठे अध्यायका बाईसवाँ-तेईसवाँ श्लोक) - ऐसा लाभतेरेको प्राप्त हो जायगा।


इस श्लोकमें 'यत्' पद पाँच बार कहनेका तात्पर्य है कि एक-एक क्रिया अर्पण करनेका भी अपार माहात्म्य है, फिर सम्पूर्ण क्रियाएँ अर्पण की जायँ, तब तो कहना ही क्या है !

विशेष बातछब्बीसवें श्लोकमें तो भगवान् ने पत्र, पुष्प आदि अर्पण करनेकी बात कही, जो कि अनायास अर्थात् बिना परिश्रमके प्राप्त होते हैं। परन्तु इसमें कुछ-न-कुछ उद्योग तो करना ही पड़ेगा अर्थात् सुगम-से-सुगम वस्तुको भी भगवान् के अर्पण करनेका नया उद्योग करना पड़ेगा। परन्तु इस सत्ताईसवें श्लोकमें भगवान् ने उससे भी विलक्षण बात बतायी है कि कोई नये पदार्थ नहीं देने हैं, कोई नयी क्रिया नहीं करनी है और कोई नया उद्योग भी नहीं करना है, प्रत्युत हमारे द्वारा जो लौकिक, पारमार्थिक आदि स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं, उनको भगवान् के अर्पण कर देना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् के लिये किसी वस्तु और क्रियाविशेषको अर्पण करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत खुदको ही अर्पित करनेकी जरूरत है। खुद अर्पित होनेसे सब क्रियाएँ स्वाभाविक भगवान् के अर्पण हो जायँगी, भगवान् की प्रसन्नताका हेतु हो जायँगी।


जैसे बालक अपनी माँके सामने खेलता है, कभी दौड़कर दूर चला जाता है और फिर दौड़कर गोदमें आ जाता है, कभी पीठपर चढ़ जाता है, आदि जो कुछ क्रिया बालक करता है, उस क्रियासे माँ प्रसन्न होती है। माँकी इस प्रसन्नतामें बालकका माँके प्रति अपनेपनका भाव ही हेतु है। ऐसे ही शरणागत भक्तका भगवान् के प्रति अपनेपनका भाव होनेसे भक्तकी प्रत्येक क्रियासे भगवान् को प्रसन्नता होती है।

यहाँ 'करोषि' क्रियाके साथ सामान्य 'यत्' पद होनेसे अर्थात् 'तू जो कुछ करता है' - ऐसा कहनेसे निषिद्ध क्रिया भी आ सकती है। परन्तु अन्तमें 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' 'वह मेरे अर्पण कर दे'- ऐसा आया है। अतः जो चीज या क्रिया भगवान् के अर्पण की जायगी, वह भगवान् की आज्ञाके अनुसार, भगवान् के अनुकूल ही होगी। जैसे किसी त्यागी पुरुषको कोई वस्तु दी जायगी तो उसके अनुकूल ही दी जायगी, निषिद्ध वस्तु नहीं दी जायगी। ऐसे ही भगवान् को कोई वस्तु या क्रिया अर्पण की जायगी तो उनके अनुकूल, विहित वस्तु या क्रिया ही अर्पण की जायगी, निषिद्ध नहीं। कारण कि जिसका भगवान् के प्रति अर्पण करनेका भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होनेकी सम्भावना है और न निषिद्ध क्रिया अर्पण करनेकी ही सम्भावना है।


अगर कोई कहे कि 'हम तो चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भी भगवान् के अर्पण करेंगे' तो यह नियम है कि भगवान् को दिया हुआ अनन्त गुणा हो करके मिलता है। इसलिये अगर चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भगवान् के अर्पण करोगे, तो उसका फल भी अनन्त गुणा हो करके मिलेगा अर्थात् उसका सांगोपांग दण्ड भोगना ही पड़ेगा !

परिशिष्ट भाव - आदरपूर्वक देना और उसीकी वस्तु उसीको देना 'अर्पण' कहलाता है। भगवान् ने पदार्थोंको तो देनेकी बात बतायी है- 'प्रयच्छति' और क्रियाओंको अर्पण करनेकी बात बतायी है- 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्'; क्योंकि क्रियाएँ दी नहीं जातीं।

ज्ञानयोगी तो संसारके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं। दूसरे शब्दोंमें, ज्ञानयोगी 'मैं' और 'मेरा' का त्याग करता है तथा भक्त 'तू' और 'तेरा' को स्वीकार करता है। इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ और क्रियाका 'त्याग' करता है तथा भक्त पदार्थ और क्रियाको भगवान् के 'अर्पण' करता है अर्थात् उनको अपना न मानकर भगवान् का और भगवत्स्वरूप मानता है। जिस वस्तुमें मनुष्यकी सत्यत्व एवं महत्त्वबुद्धि होती है, उसको मिथ्या समझकर यों ही त्याग देनेकी अपेक्षा किसी व्यक्तिके अर्पण कर देना, उसकी सेवामें लगा देना सुगम पड़ता है। फिर जो परम श्रद्धास्पद, परम प्रेमास्पद भगवान् हैं, उनको अर्पण करनेकी सुगमताका तो कहना ही क्या है!


दूसरी बात, त्यागीको त्यागका अभिमान भी आ सकता है, पर अर्पण करनेवालेको अभिमान नहीं आ सकता; क्योंकि जिसकी वस्तु है, उसीको देनेसे अभिमान कैसे आयेगा ? 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये'। सम्पूर्ण वस्तुएँ (मात्र संसार) सदासे ही भगवान् की हैं। उनको भगवान् के अर्पण करना केवल अपनी भूल (उनको अपना मान लिया - यह भूल) मिटाना है। भूल मिटनेपर अभिमान नहीं होता, प्रत्युत प्रसन्नता होती है।

संसारको भगवान् का मानते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् संसार लुप्त हो जाता है, संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती (जो वास्तवमें है ही नहीं), प्रत्युत भगवान् ही रह जाते हैं (जो वास्तवमें हैं)। अतः संसारसे सम्बन्ध विच्छेद करनेके लिये भक्तको विवेककी जरूरत नहीं है। वह संसारसे सम्बन्ध विच्छेद (त्याग) नहीं करता, प्रत्युत उसको भगवान् का और भगवत्स्वरूप मानता है; क्योंकि अपरा प्रकृति भगवान् की ही है (गीता - सातवें अध्यायका चौथा श्लोक)।

सम्बन्ध-पीछेके दो श्लोकोंमें पदार्थों और क्रियाओंको भगवान् के अर्पण करनेका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें उस अर्पणका फल बताते हैं।"


कल के प्रश्न का उत्तर:

प्रश्न: भगवान कौन सा अर्पण सच्चे भाव से स्वीकार करते हैं?

उत्तर: पत्र, पुष्प, फल, जल (Shraddha से अर्पित)

व्याख्या: भगवान को बाह्य वस्तु नहीं, भाव की शुद्धता चाहिए। प्रेम ही सबसे बड़ा अर्पण है।


आज का प्रश्न (उत्तर कल के वीडियो में):

प्रश्न: भगवान के अनुसार तपस्या, दान, भोजन आदि किसे अर्पित करना चाहिए?

A. खुद के लिए

B. समाज के लिए

C. भगवान को

D. किसी को नहीं

💬 अपना उत्तर कमेंट में ज़रूर लिखें! सही जवाब और व्याख्या कल के एपिसोड में!


💡 आज की समस्या और समाधान:

समस्या: "मैं अच्छा काम करता हूँ, लेकिन उसका परिणाम या प्रशंसा नहीं मिलती। क्या ईश्वर सब देखता है?"

समाधान: जब हम अपने हर काम को भगवान को समर्पित करते हैं, तो हमें बाहरी प्रशंसा की आवश्यकता नहीं होती। हमारे कर्म निष्काम हो जाते हैं और फल की चिंता समाप्त होती है। भगवान स्वयं कहते हैं – “जो मेरे लिए कर्म करता है, मैं उसका रक्षक बनता हूँ।”


अगले श्लोक में भगवान बताएंगे कि कैसे इस प्रकार कर्म करने से हम पापों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। ये श्लोक आत्मा की शुद्धता का मार्ग है।


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