गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 32 - भगवान सबके हैं — न कोई छोटा, न कोई बड़ा!
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 32 - भगवान सबके हैं — न कोई छोटा, न कोई बड़ा!
🙏 नमस्कार मित्रों! आपका स्वागत है “Geeta Ka Saar by Jagat Ka Saar” में, जहाँ हम हर दिन श्रीमद्भगवद्गीता के एक श्लोक का सार, अर्थ और गूढ़ भाव आपके साथ साझा करते हैं।
💬 कृपया इस दिव्य ज्ञान को अधूरा न सुनें, क्योंकि इससे गीता जी का अनादर हो सकता है। यदि आपके पास समय कम है, तो आप शुरुआत में ही छोड़ सकते हैं। हम या भगवान बुरा नहीं मानेंगे। लेकिन अगर आप पूरा सुनते हैं, तो शायद जीवन की कोई गुत्थी सुलझ जाए।
🔁 Recap (अध्याय 9 श्लोक 31)
कल हमने जाना कि — "जो मेरा भक्त है, वह कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।" क्योंकि भगवान उसे सद्गति प्रदान करते हैं, वो चाहे आज कैसा भी हो — वो भविष्य में निश्चित ही उत्तम होगा।
और हमने आपसे पूछा था:
❓भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, उनका भक्त किस प्रकार का फल पाता है?
✅ सही उत्तर था: A. वह धीरे-धीरे पुण्य आत्मा बनता है
👏 जिन्होंने सही उत्तर दिया, उन्हें बहुत-बहुत बधाई। आपके नाम कल के प्रीमियर में आएंगे!
🌸 Today's Shlok (Chapter 9 - Shlok 32)
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यांति परां गतिम्।।
🕉️ भावार्थ: हे पार्थ! जो लोग पापयोनि (कर्मवश निचले कुल में जन्मे), जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र भी यदि मेरी शरण ग्रहण करते हैं, तो वे भी परमगति को प्राप्त करते हैं।
🧘♂️ Today's Learning / Gyaan
🔹 भगवान के लिए कोई छोटा-बड़ा नहीं: जन्म से कोई नीच या उच्च नहीं होता — भक्ति ही सबका आधार है। 🔹 सबको अवसर है: चाहे जीवन में जितनी भी कठिनाइयाँ रही हों, यदि मन में सच्ची भक्ति है, तो मोक्ष की राह खुल जाती है। 🔹 गीता है समता का पाठ: गीता जात-पात, वर्ग-विभाजन से परे जाती है और एक सर्वसमावेशी जीवन का संदेश देती है।
🪔 Lesson: आज से हम किसी को भी उनके जन्म, जाति या पेशे से नहीं आंकेंगे — हम उनके कर्म और भक्ति को देखेंगे। यही गीता का संदेश है।
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"अपनी शरणागतिसे स्त्री, वैश्य, शूद्र और चाण्डालादिको भी परमगतिरूप फलकी प्राप्ति। (श्लोक-३२)
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्-तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
उच्चारण की विधि - माम्, हि, पार्थ, व्यपाश्रित्य, ये, अपि, स्युः, पापयोनयः, स्त्रियः, वैश्याः, तथा, शूद्राः, ते, अपि, यान्ति, पराम्, गतिम् ॥ ३२ ॥
शब्दार्थ - हि अर्थात् क्योंकि, पार्थ अर्थात् हे अर्जुन !, स्त्रियः अर्थात् स्त्री, वैश्याः अर्थात् वैश्य, शूद्राः अर्थात् शूद्र, तथा अर्थात् तथा, पापयोनयः अर्थात् पापयोनि चाण्डालादि, ये अर्थात् जो (कोई), अपि अर्थात् भी, स्युः अर्थात् हों, ते अर्थात् वे, अपि अर्थात् भी, माम् अर्थात् मेरी, व्यपाश्रित्य अर्थात् शरण होकर, पराम् अर्थात् परम, गतिम् अर्थात् गतिको (ही), यान्ति अर्थात् प्राप्त होते हैं।
अर्थ - हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि– चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगतिको ही प्राप्त होते हैं ॥ ३२ ॥
व्याख्या-'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य...... यान्ति परां गतिम्'- जिनके इस जन्ममें आचरण खराब हैं अर्थात् जो इस जन्मका पापी है, उसको भगवान् ने तीसवें श्लोकमें 'दुराचारी' कहा है। जिनके पूर्वजन्ममें आचरण खराब थे अर्थात् जो पूर्वजन्मके पापी हैं और अपने पुराने पापोंका फल भोगनेके लिये नीच योनियोंमें पैदा हुए हैं, उनको भगवान् ने यहाँ 'पापयोनि' कहा है।
यहाँ 'पापयोनि' शब्द ऐसा व्यापक है, जिसमें असुर, राक्षस, पशु, पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं* और ये सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी माने जाते हैं।
- केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः । येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरंजसा ।।
(श्रीमद्भा० ११।१२।८)
'गोपियाँ, गायें, वृक्ष, पशु, नाग तथा इस प्रकारके और भी मूढ़बुद्धि प्राणियोंने अनन्यभावके द्वारा सिद्ध होकर अनायास ही मेरी प्राप्ति कर ली है।'
शाण्डिल्य ऋषिने कहा है- 'आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत्।' (शाण्डिल्य-भक्तिसूत्र ७८)"
अर्थात् जैसे दया, क्षमा, उदारता आदि सामान्य धर्मोंके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं, ऐसे ही भगवद्भक्तिके नीची-से-नीची योनिसे लेकर ऊँची-से-ऊँची योनितकके सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान् के अंश होनेसे भगवान् की तरफ चलनेमें, भगवान् की भक्ति करनेमें, भगवान् के सम्मुख होनेमें अनधिकारी नहीं हैं। प्राणियोंकी योग्यता-अयोग्यता आदि तो सांसारिक कार्योंमें हैं; क्योंकि ये योग्यता आदि बाह्य हैं और मिली हुई हैं तथा बिछुड़नेवाली हैं। इसलिये भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें योग्यता-अयोग्यता कोई कारण नहीं है अर्थात् जिसमें योग्यता है, वह भगवान् में लग सकता है और जिसमें अयोग्यता है, वह भगवान् में नहीं लग सकता-यह कोई कारण नहीं है। प्राणी स्वयं भगवान् के हैं; अतः सभी भगवान् के सम्मुख हो सकते हैं। तात्पर्य हुआ कि जो हृदयसे भगवान् को चाहते हैं, वे सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी हैं। ऐसे पापयोनिवाले भी भगवान् के शरण होकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं, परम पवित्र हो जाते हैं। लौकिक दृष्टिसे तो आचरण भ्रष्ट होनेसे अपवित्रता मानी जाती है, पर वास्तवमें जो कुछ अपवित्रता आती है, वह सब-की-सब भगवान् से विमुख होनेसे ही आती है। जैसे, अंगार अग्निसे विमुख होते ही कोयला बन जाता है। फिर उस कोयलेको साबुन लगाकर कितना ही धो लें, तो भी उसका कालापन नहीं मिटता। अगर उसको पुनः अग्निमें रख दिया जाय, तो फिर उसका कालापन नहीं रहता और वह चमक उठता है। ऐसे ही भगवान् के अंश इस जीवमें कालापन अर्थात् अपवित्रता भगवान् से विमुख होनेसे ही आती है। अगर यह भगवान् के सम्मुख हो जाय, तो इसकी वह अपवित्रता सर्वथा मिट जाती है और यह महान् पवित्र हो जाता है तथा दुनियामें चमक उठता है। इसमें इतनी पवित्रता आ जाती है कि भगवान् भी इसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं!
"जब स्वयं आर्त होकर प्रभुको पुकारता है, तो उस पुकारमें भगवान् को द्रवित करनेकी जो शक्ति है, वह शक्ति शुद्ध आचरणोंमें नहीं है। जैसे, माँका एक बेटा अच्छा काम करता है तो माँ उससे प्यार करती है और एक बेटा कुछ भी काम नहीं करता, प्रत्युत आर्त होकर माँको पुकारता है, रोता है, तो फिर माँ यह विचार नहीं करती कि यह तो कुछ भी अच्छा काम नहीं करता, इसको गोदमें कैसे लूँ? वह उसके रोनेको सह नहीं सकती और चट उठाकर गोदमें ले लेती है। ऐसे ही खराब-से-खराब आचरण करनेवाला, पापी-से-पापी व्यक्ति भी आर्त होकर भगवान् को पुकारता है, रोता है, तो भगवान् उसको अपनी गोदमें ले लेते हैं, उससे प्यार करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयंके भगवान् की ओर लगनेपर जब इस जन्मके पाप भी बाधा नहीं दे सकते, तो फिर पुराने पाप बाधा कैसे दे सकते हैं ?
कारण कि पुराने पाप-कर्मोंका फल जन्म और भोगरूप प्रतिकूल परिस्थिति है; अतः वे भगवान् की ओर चलनेमें बाधा नहीं दे सकते।
यहाँ 'स्त्रियः' पद देनेका तात्पर्य है कि किसी भी वर्णकी, किसी भी आश्रमकी, किसी भी देशकी, किसी भी वेशकी कैसी ही स्त्रियाँ क्यों न हों, वे सभी मेरे शरण होकर परम पवित्र बन जाती हैं और परमगतिको प्राप्त होती हैं। जैसे, प्राचीन कालमें देवहूति, शबरी, कुन्ती, द्रौपदी, व्रजगोपियाँ आदि और अभीके जमानेमें मीरा, करमैती, करमाबाई, फूलीबाई आदि कई स्त्रियाँ भगवान् की भक्ता हो गयी हैं। ऐसे ही वैश्योंमें समाधि, तुलाधार आदि और शूद्रोंमें विदुर, संजय, निषादराज गुह आदि कई भगवान् के भक्त हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र- ये सभी भगवान् का आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त होते हैं।
विशेष बात
इस श्लोकमें 'पापयोनयः' पद स्वतन्त्ररूपसे आया है। इस पदको स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रोंका विशेषण नहीं माना जा सकता; क्योंकि ऐसा माननेपर कई बाधाएँ आती हैं।
स्त्रियाँ चारों वर्णोंकी होती हैं। उनमेंसे ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंकी स्त्रियोंको अपने-अपने पतियोंके साथ यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंमें बैठनेका अधिकार है। अतः स्त्रियोंको पापयोनि कैसे कह सकते हैं? अर्थात् नहीं कह सकते। चारों वर्णोंमें आते हुए भी भगवान् ने स्त्रियोंका नाम अलगसे लिया है। इसका तात्पर्य है कि स्त्रियाँ पतिके साथ ही मेरा आश्रय ले सकती हैं, मेरी तरफ चल सकती हैं- ऐसा कोई नियम नहीं है। स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो सकती हैं। इसलिये स्त्रियोंको किसी भी व्यक्तिका मनसे किंचिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल मेरा ही आश्रय लेना चाहिये।
अगर इस 'पापयोनयः' पदको वैश्योंका विशेषण माना जाय, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता। कारण कि श्रुतिके अनुसार वैश्योंको पापयोनि नहीं माना जा सकता *।
- 'तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरश्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा।' (छान्दोग्य० ५।१०।७)
- अर्थात् जो अच्छे आचरणोंवाले हैं, उनका जन्म तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें होता है; परन्तु जो नीच आचरणोंवाले हैं, वे कुत्ते, सूकर तथा चाण्डालयोनिमें जन्म लेते हैं।'
वैश्योंको तो वेदोंके पढ़नेका और यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंके करनेका पूरा अधिकार दिया गया है।
अगर इस 'पापयोनयः' पदको शूद्रोंका विशेषण माना जाय, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता; क्योंकि शूद्र तो चारों वर्णोंमें आ जाते हैं। अतः चारों वर्णोंके अतिरिक्त अर्थात् शूद्रोंकी अपेक्षा भी जो हीन जातिवाले यवन, हूण, खस आदि मनुष्य हैं, उन्हींको 'पापयोनयः' पदके अन्तर्गत लेना चाहिये।
जैसे माँकी गोदमें जानेके लिये किसी भी बच्चेके लिये मनाही नहीं है; क्योंकि वे बच्चे माँके ही हैं। ऐसे ही भगवान् का अंश होनेसे प्राणिमात्रके लिये भगवान् की तरफ चलनेमें (भगवान् की ओरसे) कोई मनाही नहीं है।
पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदिमें भगवान् की तरफ चलनेकी समझ, योग्यता नहीं है, फिर भी पूर्वजन्मके संस्कारसे या अन्य किसी कारणसे वे भगवान् के सम्मुख हो सकते हैं। अतः यहाँ 'पापयोनयः' पदमें पशु, पक्षी आदिको भी अपवादरूपसे ले सकते हैं। पशु-पक्षियोंमें गजेन्द्र, जटायु आदि भगवद्भक्त हो चुके हैं।
मार्मिक बात
भगवान् की तरफ चलनेमें भावकी प्रधानता होती है, जन्मकी नहीं। जिसके अन्तःकरणमें जन्मकी प्रधानता होती है, उसमें भावकी प्रधानता नहीं होती और उसमें भगवान् की भक्ति भी पैदा नहीं होती। कारण कि जन्मकी प्रधानता माननेवालेके 'अहम्' में शरीरका सम्बन्ध मुख्य रहता है, जो भगवान् में नहीं लगने देता अर्थात् शरीर भगवान् का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता, प्रत्युत स्वयं भक्त होता है। ऐसे ही जीव ब्रह्मको प्राप्त नहीं हो सकता; किन्तु ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् ब्रह्ममें जीवभाव नहीं होता और जीवभावमें ब्रह्मभाव नहीं होता। जीव तो प्राणोंको लेकर ही है और ब्रह्ममें प्राण नहीं होते।
इसलिये ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् जीवभाव मिटकर ही ब्रह्मको प्राप्त होता है- 'ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' (बृहदारण्यक० ४।४।६)। स्वयंमें शरीरका अभिमान नहीं होता। जहाँ स्वयंमें शरीरका अभिमान होता है, वहाँ 'मैं शरीरसे अलग हूँ' यह विवेक नहीं होता, प्रत्युत वह हाड़-मांसका, मल-मूत्र पैदा करनेवाली मशीनका ही दास (गुलाम) बना रहता है। यही अविवेक है, अज्ञान है। इस तरह अविवेककी प्रधानता होनेसे मनुष्य न तो भक्ति-मार्गमें चल सकता है और न ज्ञानमार्गमें ही चल सकता है। अतः शरीरको लेकर जो व्यवहार है, वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये। परन्तु भगवान् की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है, शरीरकी नहीं।
तात्पर्य यह हुआ कि जो भक्ति या मुक्ति चाहता है, वह स्वयं होता है, शरीर नहीं। यद्यपि तादात्म्यके कारण स्वयं शरीर धारण करता रहता है; परन्तु स्वयं कभी भी शरीर नहीं हो सकता और शरीर कभी भी स्वयं नहीं हो सकता। स्वयं स्वयं ही है और शरीर शरीर ही है। स्वयंकी परमात्माके साथ एकता है और शरीरकी संसारके साथ एकता है।
जबतक शरीरके साथ तादात्म्य रहता है, तबतक वह न भक्तिका और न ज्ञानका ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शंकाओंका समाधान ही कर सकता है। वह शरीरका तादात्म्य मिटता है - भावसे। मनुष्यका जब भगवान् की तरफ भाव होता है, तब शरीर आदिकी तरफ उसकी वृत्ति ही नहीं जाती। वह तो केवल भगवान् में ही तल्लीन हो जाता है, जिससे शरीरका तादात्म्य मिट जाता है। इसलिये उसको विवेक-विचार नहीं करना पड़ता और उसमें वर्ण-आश्रम आदिकी किसी प्रकारकी शंका पैदा ही नहीं होती। ऐसे ही विवेकसे भी तादात्म्य मिटता है। तादात्म्य मिटनेपर उसमें किसी भी वर्ण या आश्रमका अभिमान नहीं होता। कारण कि स्वयंमें वर्ण-आश्रम नहीं है, वह वर्ण-आश्रमसे अतीत है।
परिशिष्ट भाव - जिसमें दूसरेका आश्रय नहीं है, ऐसे अनन्य आश्रयको यहाँ 'व्यपाश्रय' अर्थात् विशेष आश्रय कहा गया है।
पूर्वजन्मके पापीकी अपेक्षा वर्तमानका पापी विशेष दोषी होता है, इसलिये पहले (तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें) वर्तमान (इस जन्मके) पापीकी बात कहकर अब इस श्लोकमें पूर्वजन्मके पापीकी बात कहते हैं- 'येऽपि स्युः पापयोनयः'।
सम्बन्ध-अब भक्तिके शेष दो अधिकारियोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।"
कल हम जानेंगे कि – "यदि स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, तो फिर वे जो पुण्य कार्यों में लगे हैं – ब्राह्मण और राजर्षि – उनके लिए कितना सरल है प्रभु प्राप्ति का मार्ग!"
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❓ Today's Question for Audience Engagement
"श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भगवान किन-किन को भी परमगति प्राप्त करने का अवसर देते हैं?"
A. केवल ब्राह्मण
B. केवल संन्यासी
C. स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र आदि भी
D. केवल अर्जुन
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